सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

परन्तु बहुत संक्षिप्त परिभाषाएं सुविधाजनक तो होती हैं क्योंकि वे मुख्य बातों को अपने अंदर समेट लेती हैं, फिर भी वे अपर्याप्त होती हैं क्योंकि जिस घटना की परिभाषा करना होता है उसकी बहुत महत्वपूर्ण विशेषताओं को इस परिभाषा से विशेष रूप से निष्कर्ष के रूप में निकालना पड़ता है। और इसलिए इस बात को भुलाये बिना कि आम तौर पर सभी परिभाषाओं के साथ कुछ शर्ते होती हैं तथा उनका महत्व आपेक्षिक ही होता है और यह कि किसी भी परिभाषा में कभी भी किसी घटना के पूर्ण विकासक्रम की सभी कड़ियों को नहीं समेटा जा सकता , हमें साम्राज्यवाद की ऐसी परिभाषा देनी चाहिए जिसमें उसकी निम्नलिखित पांच विशेषताएं आ जायें : (१) उत्पादन तथा पूंजी का संकेंद्रण विकसित होकर इतनी ऊंची अवस्था में पहुंच गया है कि उसने इजारेदारियों को जन्म दिया है जिनकी कि आर्थिक जीवन में एक निर्णायक भूमिका है ; (२) बैंकों की पूंजी और उद्योगों की पूंजी मिलकर एक हो गयी हैं, और इस “वित्तीय पूंजी" के आधार पर एक वित्तीय अल्पतंत्र की रचना हुई है ; (३) पूंजी के निर्यात ने, जो माल के निर्यात से भिन्न है , असाधारण महत्व धारण कर लिया है; (४) अंतर्राष्ट्रीय इजारेदार पूंजीवादी संघों का निर्माण हुआ है जिन्होंने दुनिया को आपस में बांट लिया है, और (५) सबसे बड़ी पूंजीवादी ताक़तों के बीच पूरी दुनिया का क्षेत्रीय विभाजन पूरा हो गया है। साम्राज्यवाद पूंजीवाद के विकास की वह अवस्था है जिसमें पहुंचकर इजारेदारियों तथा वित्तीय पूंजी का प्रभुत्व दृढ़ रूप से स्थापित हो चुका है, जिस अवस्था में पूंजी का निर्यात अत्यधिक महत्व ग्रहण कर चुका है, जिस अवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय ट्रस्टों के बीच दुनिया का बंटवारा प्रारंभ हो गया है, जिस अवस्था में सबसे बड़ी पूंजीवादी ताक़तों के बीच पृथ्वी के समस्त क्षेत्रों का बंटवारा पूरा हो चुका है।

१२४