हम आगे चलकर देखेंगे कि यदि हम केवल मूलभूत, शुद्धतः आर्थिक अवधारणाओं को ही नहीं- ऊपर वाली परिभाषा इन्हीं तक सीमित है - बल्कि पूरे पूंजीवाद के प्रसंग में पूंजीवाद की इस अवस्था विशेष के ऐतिहासिक स्थान को भी , या मजदूर वर्ग के आंदोलन की दो मुख्य धाराओं के साथ साम्राज्यवाद के संबंध को भी ध्यान में रखें तो साम्राज्यवाद की परिभाषा इससे भिन्न रूप में की जा सकती है और की जानी चाहिए। इस समय जो बात ध्यान देने की है वह यह कि, जैसी कि ऊपर व्याख्या की जा चुकी है, साम्राज्यवाद निःसंदेह पूंजीवाद के विकास की एक विशेष अवस्था का द्योतक है। इस उद्देश्य से कि पाठकों को साम्राज्यवाद के बारे में यथासंभव दृढ़तम आधार पर तैयार किया गया चित्र प्राप्त हो सके, हमने जान-बूझकर यथासंभव ज्यादा से ज्यादा हद तक उन पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों के उद्धरण देने की कोशिश की थी जो पूंजीवादी अर्थतंत्र की इस नवीनतम अवस्था के विषय में विशेषतः अकाट्य तथ्यों को स्वीकार करने पर बाध्य हैं। इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए हमने विस्तारपूर्वक ऐसे आंकड़े उद्धृत किये हैं जिनसे पाठकों को यह पता चल सकता है कि बैंकों की पूंजी आदि किस हद तक बढ़ी है, मात्रा का गुण में रूपांतरण, विकसित पूंजीवाद का साम्राज्यवाद में संक्रमण, ठीक-ठीक किस बात में अभिव्यक्त होता है। जाहिर है, यह बताने की तो आवश्यकता नहीं कि प्रकृति तथा समाज की सभी सीमा-रेखाओं के साथ कुछ शर्ते होती हैं और वे बदली जा सकती हैं, और यह कि, उदाहरण के लिए, इस बात पर बहस करना बिल्कुल बेतुकी बात होगी कि साम्राज्यवाद “निश्चित रूप से" किस वर्ष या किस दशाब्दी में जाकर स्थापित हुआ।
परन्तु साम्राज्यवाद की परिभाषा करने के मामले में हमें मुख्यतः का० कौत्स्की के साथ बहस में पड़ना ही पड़ता है, जो तथाकथित दूसरी इंटरनेशनल के युग के - अर्थात् १८८९ से १९१४ तक के पच्चीस वर्षों
१२५