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पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१६७

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विज्ञानसंगत हैं और इसलिए कि लैंसबर्ग ने इस समस्या पर विचार करने का सही तरीक़ा दिखाया। निर्यात आदि के प्रसंग में वित्तीय पूंजी के महत्व पर विचार करते समय हमें और बातों से अलग इस बात का पता लगाना चाहिए कि निर्यात का विशेषतः तथा शुद्धतः महाजनों की तिकड़मों के साथ विशेषतः तथा शुद्धतः कार्टेलों द्वारा माल की बिक्री आदि के साथ क्या संबंध है। केवल उपनिवेशों की तुलना और ग़ैर-उपनिवेशों के साथ, एक साम्राज्यवाद की दूसरे साम्राज्यवाद के साथ, एक अर्ध-उपनिवेश या उपनिवेश (मिस्र) की अन्य सभी देशों के साथ करने का मतलब इस प्रश्न के असली निचोड़ से कतराना और उसपर परदा डालना है।

कौत्स्की की साम्राज्यवाद की सैद्धांतिक आलोचना और मार्क्सवाद के बीच कोई समानता नहीं है और वह केवल अवसरवादियों तथा सामाजिक-अंधराष्ट्रवादियों के साथ शांति तथा एकता का प्रचार करने की केवल एक भूमिका मात्र है, इसका कारण ठीक यही है कि वह साम्राज्यवाद के बहुत गहरे तथा आधारभूत विरोधों से कतराती है तथा उनपर परदा डालती है। ये विरोध हैं: इजारेदारी और उसके साथ ही साथ अस्तित्व में रहनेवाली खुली प्रतियोगिता का पारस्परिक विरोध, वित्तीय पूंजी के विशाल पैमाने के "सौदों" (और विशाल मुनाफ़ों) तथा खुले बाजार में "ईमानदारी के" व्यापार का पारस्परिक विरोध, एक ओर कार्टेलों तथा ट्रस्टों और दूसरी ओर कार्टेलों से मुक्त उद्योगों का पारस्परिक विरोध, आदि। कौत्स्की ने "अति-साम्राज्यवाद" के जिस कुख्यात सिद्धांत का आविष्कार किया है वह भी इतना ही

प्रतिक्रियावादी है। इस विषय में उन्होंने १९१५ में जो तर्क दिये हैं उनकी तुलना १९०२ में हाबसन द्वारा दिये गये तर्कों के साथ करके देखिये।

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