तो साधारण जनता भी इस बात को मानकर चलती है कि आर्थिक जीवन के बड़े-बड़े क्षेत्र खुली प्रतियोगिता के क्षेत्र से बाहर कर लिये गये हैं।"*[१]
इस भांति इजारेदारियों के इतिहास की मुख्य अवस्थाएं निम्नलिखित हैं: (१) १८६०-७०, खुली प्रतियोगिता की चरम अवस्था, उसके विकास का शिखर; इजारेदारियां अभी मुश्किल से ही दिखायी देती थीं, वे अभी अंकुर रूप में ही मौजूद थीं। (२) १८७३ के संकट के बाद , कार्टेलों का एक विस्तृत क्षेत्र में विकास पर अभी वे अपवाद के रूप में ही हैं। अभी वे टिकाऊ नहीं बन पाये हैं। अभी उनका रूप अस्थायी ही है। (३) उन्नीसवीं शताब्दी के अंत की तेज़ी और १९००-०३ का संकट। कार्टेल समूचे आर्थिक जीवन का एक आधार बन गये हैं। पूंजीवाद साम्राज्यवाद में बदल गया है।
कार्टेल बिक्री की शर्तों, अदायगी की शर्तों, आदि के बारे में समझौता कर लेते हैं। वे मंडियों को आपस में बांट लेते हैं। वे यह तय कर लेते हैं कि कितना माल पैदा किया जायेगा। वे क़ीमतें तय कर लेते हैं। वे मुनाफ़े को विभिन्न कारखानों आदि में बांट लेते हैं।
अंदाज़ा लगाया गया था कि १८९६ में जर्मनी में कार्टेलों की संख्या २५० और १९०५ में ३८५ थी, और इनमें क़रीब-करीब
- ↑ *Th. Vogelstein, «Grundriss der Sozialökonomik», VI Abt., Tübingen, 1914 (सामाजिक अर्थशास्त्र की रूपरेखा - अनु०) में «Die finanzielle Organisation der kapitalistischen Industrie und die Monopolbil- dungen> (पूंजीवादी उद्योग का वित्तीय संगठन और इजारेदारियों का निर्माण - अनु०)। इसी लेखक की यह रचना भी देखिये : «Organisationsformen der Eisenindustrie und Textilindustrie in England und America» (इंग्लैंड तथा अमरीका के लोहे तथा कपड़े के उद्योग के संगठनात्मक रूप - अनु०), Bd. I, Lpz. 1910.
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