पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/४५

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लेन-देन में वृद्धि के कारण किस प्रकार बैंकों का महत्व बुनियादी तौर पर बदलता जा रहा है। बिखरे हुए अलग-अलग पूंजीपति एक ही सामूहिक पूंजीपति का रूप धारण कर लेते हैं । जब तक कोई बैंक कुछ पूंजीपतियों के चालू खातों का हिसाब रखता है तब तक वह एक प्रकार से एक शुद्धतः प्राविधिक तथा पूर्णतः सहायक कार्य करता है। परन्तु जब यह कारोबार बेहद बढ़ जाता है तब हम देखते हैं कि मुट्ठी-भर इजारेदार पूरे पूंजीवादी समाज के सारे कारोबार को, वाणिज्यिक भी और औद्योगिक भी, अपनी इच्छा के आधीन कर लेते हैं ; क्योंकि अपने बैंक के कारोबार के फलस्वरूप स्थापित संबंधों, अपने चालू खातों और अन्य वित्तीय कारोबार के जरिये - उन्हें इस बात का मौक़ा मिलता है कि पहले तो वे विभिन्न पूंजीपतियों के बारे में ठीक-ठीक पता लगा सकें कि उनकी वित्तीय स्थिति क्या है, फिर उन्हें ऋण देना कम करके या बढ़ाकर, ऋण की सुविधा प्रदान करके या उसमें बाधा डालकर, उनपर नियंत्रण रख सकें और अंत में उनके भाग्य को पूरी तरह अपने वश में कर लें, उनकी आय निर्धारित करें, उन्हें पूंजी से वंचित कर दें, या उन्हें अपनी पूंजी बड़ी तेज़ी से तथा बेहद बढ़ा लेने दें, आदि।

हम अभी «Disconto-Gesellschafty» बैंक की ३०,००,००,००० मार्क की पूंजी का उल्लेख कर चुके हैं। इस बैंक की पूंजी में यह वृद्धि बर्लिन के दो सबसे बड़े बैंकों के बीच - «Deutsche Bank» ( जर्मन बैंक) तथा «Disconton» के बीच - प्रमुख स्थान पाने के लिए होनेवाले संघर्ष की अनेक घटनाओं में से एक थी। १८७० में पहला वाला बैंक अभी नया-नया ही मैदान में आया था और उसकी पूंजी सिर्फ़ १, ५०, ००, ००० मार्क की थी, जबकि दूसरे वाले की पूंजी ३,००, ००, ००० मार्क थी। १६०८ में पहले वाले की पूंजी २०,००,००,००० मार्क थी और दूसरे वाले की

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