के बारे में हम जीडेल्स द्वारा प्रयुक्त शब्दों को ही उद्धृत करना आवश्यक समझते हैं, जिन्होंने इस विषय का अध्ययन सबसे अच्छी तरह किया है :
"औद्योगिक संबंधों के कुल योग की छानबीन करने से उद्योगों की ओर से काम करनेवाले वित्तीय संस्थानों का सर्वव्यापी स्वरूप प्रकट हो जाता है। दूसरी तरह के बैंकों से भिन्न और इस विषय के साहित्य में कभी-कभी उठायी जानेवाली इस मांग के प्रतिकूल कि बैंकों को एक ही प्रकार के कारोबार में या उद्योगों की किसी एक शाखा की ओर ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि उनके पैर जम जायें- बड़े बैंक इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि वे स्थानों तथा उद्योगों की शाखाओं की दृष्टि से प्रौद्योगिक कारोबारों के साथ अपने संबंध यथासंभव अधिकतम वैविध्यपूर्ण बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं और अलग-अलग कारखानों के ऐतिहासिक विकास के कारण विभिन्न स्थानों तथा उद्योगों की विभिन्न शाखाओं के बीच पूंजी के वितरण में जो असमानता उत्पन्न हो गयी है उसे वे दूर करने का प्रयत्न कर रहे हैं।" “एक प्रवृत्ति तो है उद्योगों के साथ संबंधों को आम बना देने की ; दूसरी प्रवृत्ति है उन्हें टिकाऊ तथा घनिष्ठ बनाने की। इन छ: बड़े-बड़े बैंकों में ये दोनों ही प्रवृत्तियां पूरी तरह तो नहीं पर काफ़ी हद तक और बराबर परिमाण में पायी जाती हैं।"
अक्सर औद्योगिक तथा वाणिज्यिक क्षेत्र बैंकों की आतंकवादी हरकतों” की शिकायत करते हैं। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस प्रकार की शिकायतें सुनने में आती हैं, क्योंकि बड़े बैंक “हुक्म चलाते" हैं, जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। १९ नवम्बर, १९०१ को बर्लिन के तथाकथित “डी” बैंकों में से एक बड़े बैंक ने (चार सबसे बड़े बैंकों के नाम “डी” अक्षर से शुरू होते हैं) जर्मनी के केंद्रीय उत्तर-पश्चिम सीमेंट सिंडीकेट के संचालक-मंडल को इन
५८