कि राष्ट्रीय अर्थतंत्र की नयी परिस्थितियों की रचना हो रही है ; पर इन घटनाओं के आगे वे लाचार हैं।
जीडेल्स लिखते हैं : “जिस किसी ने भी पिछले कुछ वर्षों में बड़े बैंकों के संचालकों तथा निरीक्षण मंडल के सदस्यों के पदों पर आसीन लोगों में किये गये परिवर्तनों को ध्यान से देखा है उसने इस बात को अवश्य देखा होगा कि ताक़त धीरे-धीरे ऐसे लोगों के हाथों में पहुंचती जा रही है जो उद्योगों के आम विकास में बड़े बैंकों के सक्रिय हस्तक्षेप को आवश्यक और बढ़ते हुए महत्व को समझते हैं। इन नये लोगों तथा बैंकों के पुराने संचालकों के बीच इस विषय पर कारोबारी और बहुधा वैयक्तिक ढंग के मतभेद बढ़ते जा रहे हैं। सवाल यह है कि उद्योगों में इस हस्तक्षेप से बैंकों को ऋण देनेवाली संस्थाओं के रूप में हानि पहुंचेगी या नहीं, क्या एक ऐसे कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने के लिए, जिसका कि ऋण दिलाने में उनकी एक बिचवान की भूमिका के साथ कोई संबंध नहीं है और जो बैंकों को एक ऐसे क्षेत्र में लिये जा रहा है जहां उनके लिए पहले कभी की अपेक्षा प्रौद्योगिक उतार-चढ़ावों की अंधी शक्तियों की लपेट में आ जाने का खतरा बहुत बढ़ जाता है, वे परखे हुए सिद्धांतों और निश्चित मुनाफ़े की बलि नहीं दे रहे हैं। पुराने बैंक संचालकों में से बहुतों की यही राय है, जबकि अधिकांश नौजवान लोग उद्योगों में सक्रिय हस्तक्षेप को उतनी ही बड़ी आवश्यकता समझते हैं जितनी कि वह आवश्यकता थी जिसने आधुनिक बड़े उद्योगों के साथ-साथ बड़े-बड़े बैंकों और आधुनिक औद्योगिक बैंक-कार्य को जन्म दिया था। ये दोनों पक्ष केवल एक बात पर सहमत हैं : वह यह कि बड़े बैंकों की इन नयी गतिविधियों में न तो कोई दृढ़ सिद्धांत हैं न कोई ठोस लक्ष्य।"*[१]
पुराने पूंजीवाद के दिन पूरे हुए। नया पूंजीवाद किसी चीज़ की ओर
- ↑ *जीडेल्स , पहले उद्धृत की गयी पुस्तक, पृष्ठ १८३-१८४ ।
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