एक संक्रमण का द्योतक है। जाहिर है कि इजारेदारी और खुली प्रतियोगिता का “मेल बिठाने" के उद्देश्य से “दृढ़ सिद्धांतों और किसी ठोस लक्ष्य" को ढूंढ़ना बिल्कुल बेकार है। "संगठित” पूंजीवाद के समर्थक , शुल्जे-गवर्नित्ज़ , लिएफ़मैन तथा ऐसे ही दूसरे “सिद्धांतवेत्ता" उसकी खूबियों का जो सरकारी तौर पर गुणगान करते हैं उसके मुकाबले में व्यावहारिक लोगों की स्वीकारोक्ति में एक-दूसरे ही स्वर की गूंज है।
बड़े बैंकों की “नयी गतिविधियां" ठीक-ठीक किस काल में अंतिम रूप से स्थापित हुईं ? जीडेल्स ने इस महत्वपूर्ण प्रश्न का काफ़ी सही-सही उत्तर दिया है।
"बैंकों तथा औद्योगिक कारखानों के वे पारस्परिक संबंध जिनका सार नया है, जिनके रूप नये हैं और जिनकी अभिव्यक्ति के माध्यम भी नये हैं, अर्थात् जिनकी अभिव्यक्ति का माध्यम वे बड़े-बड़े बैंक हैं जो केंद्रित तथा विकेंद्रित दोनों ही आधारों पर संगठित हैं ,-ये संबंध पिछली शताब्दी के अंतिम दशक से पहले लाक्षणिक आर्थिक घटना मुश्किल से ही बन पाये थे। एक एतबार से तो इन संबंधों के आरंभ होने की तारीख सन् १८९७ में निर्धारित की जा सकती है, जिस साल महत्वपूर्ण 'विलय' हुए थे और बैंकों की प्रौद्योगिक नीति से मेल खाने के लिए विकेंद्रित संगठन का नया रूप पहली बार प्रचलित किया गया था। यह प्रारंभिक तिथि इसके भी बाद निर्धारित की जा सकती है क्योंकि १९०० का आर्थिक संकट ही था जिसने उद्योगों तथा बैंकों के कारोबार के संकेंद्रण की प्रक्रिया की रफ्तार को अत्यधिक तेज़ कर दिया और उसे बहुत उग्र रूप प्रदान किया, उस प्रक्रिया को सुसंगठित बनाया, उद्योगों के साथ उनके संबंध को पहली बार बड़े बैंकों की वास्तविक इजारेदारी में परिवर्तित कर दिया और इस संबंध को अधिक घनिष्ठ तथा अधिक सक्रिय बना दिया।"*[१]
- ↑ *उपरोक्त पुस्तक , पृष्ठ १८१।
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