वृद्धि पूंजीवाद की अपनी अलग लाक्षणिक विशेषता है। अलग-अलग कारोबारों का, उद्योगों की अलग-अलग शाखाओं का तथा अलग-अलग देशों का असमान तथा रुक-रुककर झटकों के साथ विकास पूंजीवादी व्यवस्था में अनिवार्य है। इंगलैंड किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा सबसे पहले पूंजीवादी देश बना और उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक खुले व्यापार का मार्ग अपनाकर वह “सारी दुनिया का कारखाना" होने का, सभी देशों को कारखानों का तैयार माल सप्लाई करनेवाला होने का दावा करने लगा, जिन्हें इसके बदले में उसे कच्चे माल से परिपूर्ण रखना पड़ता था। परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी की अंतिम चौथाई में इस इजारेदारी की जड़ें खोखली हो चुकी थी, क्योंकि दूसरे देश अपने आपको "संरक्षणात्मक" महसूलों द्वारा सुरक्षित करके स्वतंत्र पूंजीवादी राज्य बन गये थे। बीसवीं शताब्दी में प्रवेश करते ही हम एक नये ढंग की इजारेदारी का निर्माण होते देखते हैं : पहले, सभी विकसित पूंजीवादी देशों में इजारेदार पूंजीवादी संघ हैं ; दूसरे, गिने-चुने अत्यंत धनी देशों की इजारेदारी की स्थिति , जिनमें पूंजी का संचय अत्यंत विशाल रूप धारण कर चुका है। उन्नत देशों में “पूंजी का" बेहद “अति- बाहुल्य" पैदा हो गया है।
यह तो मानी हुई बात है कि यदि पूंजीवाद कृषि का विकास कर सकता, जो आज हर जगह उद्योगों से बेहद पीछे है, यदि वह जन- साधारण के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठा सकता, जिन्हें आज भी आश्चर्यजनक प्राविधिक उन्नति के बावजूद हर जगह भर-पेट भोजन नहीं मिलता और जो दरिद्रता का शिकार हैं , तो पूंजी के अति- बाहुल्य का कोई सवाल ही पैदा न होता। पूंजीवाद के निम्न-पूंजीवादी आलोचक बहुधा यह “दलील" पेश करते हैं। परन्तु यदि पूंजीवाद यह सब कुछ करता तो वह पूंजीवाद ही न होता, क्योंकि असमान विकास और जन-साधारण को भर-पेट भोजन न मिलना ये दोनों ही बातें इस
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