उत्पादन-प्रणाली की आधारभूत तथा अनिवार्य शर्ते तथा मान्यताएं हैं। जब तक पूंजीवाद पूंजीवाद रहेगा तब तक फ़ालतू पूंजी उस देश विशेष के जन-साधारण के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए नहीं इस्तेमाल की जायेगी क्योंकि इसका मतलब होगा पूंजीपतियों के मुनाफ़े में कमी, बल्कि उसका इस्तेमाल पिछड़े हुए देशों में पूंजी का निर्यात करके मुनाफ़े बढ़ाने के लिए किया जायेगा। इन पिछड़े हुए देशों में मुनाफ़े आम तौर पर ऊंचे होते हैं क्योंकि वहां पूंजी का अभाव रहता है , जमीन की कीमत अपेक्षतः कम होती है, मज़दूरी बहुत कम होती है, कच्चा माल सस्ता होता है। पूंजी के निर्यात की संभावना इस बात से उत्पन्न होती है कि अनेक पिछड़े हुए देश विश्वव्यापी पूंजीवादी संसर्ग के क्षेत्र में खिंचकर आ चुके हैं ; वहां मुख्य रेलवे लाइनें या तो बन चुकी हैं या बनायी जा रही हैं, औद्योगिक विकास के लिए प्राथमिक परिस्थितियां उत्पन्न कर दी गयी हैं, आदि। पूंजी का निर्यात करने की आवश्यकता इस बात से उत्पन्न होती है कि कुछ गिने-चुने देशों में पूंजीवाद “आवश्यकता से अधिक पक चुका है" और ( कृषि की पिछड़ी हुई अवस्था तथा जन-साधारण की दरिद्रता के कारण ) पूंजी को "लाभप्रद" ढंग से लगाने के लिए क्षेत्र नहीं मिलता।
नीचे हम तीन देशों द्वारा विदेशों में लगायी गयी पूंजी की रकम के संबंध में मोटे-मोटे आंकड़े दे रहे हैं :*[१]
- ↑ *हाबसन, "साम्राज्यवाद", लंदन १९०२, पृष्ठ ५८; रीसेर, पहले उद्धृत की गयी पुस्तक , पृष्ठ ३९५ तथा ४०४, पी० आर्नड्ट, «Weltoirtschaftliches Archiv» में , खंड ७, १९१६, पृष्ठ ३५ ; नेमार्क, बुलेटिन में ; हिल्फ़र्डिंग , “वित्तीय पूंजी", पृष्ठ ४९२ ;४ मई, १९१५ को हाउस आफ़ कामंस में लायड जार्ज का भाषण, जिसकी रिपोर्ट ५ मई, १९१५ "डेली टेलीग्राफ़" में छपी थी; बी० हार्स, «Probleme der Weltuirtschaft», जेना १९१२, पृष्ठ २३५ तथा उसके बाद के पृष्ठ ;
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