पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/११

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। उक्ति ऊहा की के हे दिनपत (दिन पति सूर्य सूर्य का नाम मित्र) मित्र कहा जात हो धरा पृथ्वी धरन (शेषधर)शिवरिपु कामतै सोतनले कै उदधिसुत सुधा बोलव लव उलटे ते बल बल जाउहो हे सारंग कमलनयन चितवहु मुरली बजावहु रुष अनत जिन फेरो यह में उल्लेख अलंकार परकियानाइका है ताको लच्छन । दोहा-बहुविध बरने एक को, सौ उल्लेख गनाइ । । दुरे करत परपति सुरत, सो परपतनी आइ ॥ १॥ ८॥ जप मोहि बहुपाद मिलावो। सुन सजनी यह प्रन हमार लषि हिय ते हरष बढ़ावी ॥ सुचहीपति पितु प्रिया पाइ पर धर सिर आप मनावो। नीतन हीनयुचरिपुजननीसुतपितजा ढिग जावो ॥ सूर समूह पयं धार परमहित आषत अमल चढावो। बार बार बिनवत हो तुम ते लषि निसपति मुरझावो । सूरज प्रभु पर होहु अनूठा सुमिरन जनि बिसरावो ॥६॥ ८ उक्ति नाइका की सषी से कै हे सषी जूप नाम पीपर ताको नाम वासुदेव बहुपाद नाम बर अर्थ यह हम को कृष्ण बर देहु हे सषी हमारो प्रन लखि के हिय में हर्ष बढ़ावो सुचही ते बरही मयूर पति षडानन पितु शिव प्रिया शिवा(पार्वती)ताके पाइन पै सिर धरोनीतन नयन ते हीन धृतराष्ट्र सुत दुर्योधन रिपु भीम जननी कुंती सुत करन पिता सूर्य पुत्री जमुना ताके नजीक जावो सूर समूह सुमन दूध अछत चढ़ावो बारबार तुम सो बिनवत है निसपति चंद देष मुरझाइ कै सूरज प्रभु नंदनंदन तापे हो अनूठा भई है