पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१२४

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पै पान॥दामिनी थिर घनघटा बर कबहुं ह्व एहि भांति। कबहुं दिन उद्योत कबहं होत अति कुहराति॥ सिंह मध्य सनाद मनिगन सरस सर के तीर । कमल मन बिन नाल उलटै कछुक तीछन नीर॥ हंस साषा सिषर पट चढि करत नाना नांद । मकनि जु पद निकट विहरत मिलन अति अहलाद॥ प्रेम हित करि षीरसागर भई मनसा एक । स्याम मनि के अंग चंदन अमी के अबिसेक ॥ सूरदास सषी सभा मिलि करत बुद्धि विचार। समै सोमा लगि रही मनो सम को संसार ॥५॥ रसना इति । उक्ति सपी की सपी सों। जुगुल रस निधि की जो है रसना सो बोलती है कनकवेलि जो नायका अरु तमाल जो नायक तासों अरुझी है। सुंदर जो भुना है तिन सों बांधि के झंग जो है केस सो सुधाकार मुष तिन में सघन आवत जात है। अरु सुरसरी जो मांग ता में तरनिजा जमुना सो पाटी तटन में नाहीं समाती । अरु कोकनद कमल मुष तामें तन्योना सूर्य सो नृत्य करत है । मीन पंजन रूपी नेत्र तिन के संघमें औ कीर नासिका अरु तिल तिल जल स्वेद सिपर ऊचे पै संगम में रंग करे हैं अरु जल मेघ केस तिन ते तारे मुकुता पै निधि कुच पाल है । अरु जुगु ल भन जापक के हाथ प्रसन्न मुप है कनक बट लपटाये