पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१२५

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। १२४ । हैं। अरु कनक संपुट कुच कोकिलवानी के बस के अपने सरीर को दोन करत है । अरु फूलो कंज मुष सो अधर नारंगी रस को पान करत है अरु दामिनी नाइका धन नाइक कबहुं थिर होय है औ कबहू भूष तन के प्रकास ने दिन होय है अरु केतन के आछादन तें कबहू अमावस की राति होय है अरु सिंह कटि तामें शब्द करैहै किंकिनी सरस जो नाभी सर ताके तीर में अरु हंस जो नूपुर है सो नायक के कंध सिषर अग्र भाग तापर नाना शब्द करै है। मकर जो मकराकृतकुंडल नायक के सो निज पद श्रवण की जो लहर रूपी लहर है तामें बिहरत है । अथवा नाइका की जो मीन रेष है पदन की सी नायक के श्रवण लहर लों बिहरै है प्रेम के हित के वास्ते क्षीरसागर दोनो की मनसा एक भई है अरु स्याम- मनि के अंग चंदन नायक अंग को चंदन है अवशेष बाकी सो अमृत है सब सषी मिलि ऐसी विचार करै है सभै सार की सोभा सूर के उर में लगि रही है मानो ॥५॥ राग बिहागरा। लोचन लालच ते न टरे। हरि सारंग सो सारंग गीधे दधिसुत काज जरे ॥ ज्यौं मधुकर बस परे केतकी नहिं हां ते निकरे । ज्यों लोभी लोभहि नहिं छांड- त यह अति उमगि भरे॥ सनमुष रहत सहत दुष दारुन मृग ज्यौं नहीं डरे । वह धोषे यह जानत है सब हित चित सदा करे ॥ ज्यौं पग फिरि फिरि परत प्रेमबस जीवन मुरछि मरे। जैसे मीन अहार लोम ते लीलत परे गरे ॥ऐसे हि