सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[ १३२ ] मीन मधुप जे गुन गान करत हैं तो हग पुले विना अरु विद्रुम दुपहरिया कुंदुरु ये मिलि कै कविन को छबि को दान देत हैं तेरे अधर के रंग फैले बिन दाडिम दामिनि कुंदकली इन को वषान होत है तो दशन की दमक विना अरु नक्षत्रन के गन सब सोमामान होत हैं तो भूषन भानु बिन॥१६॥ राग सारंग। रही दे चुंघुट पट की प्रोट। मनो कियो फिरि मान मवासो मनमथ बिकटे कोट ॥ नहसुत कील कपाट सुलच्छन दै दृग हार अकोट । भीतर भाग कृष्ण भूपति को राषि अधर मधु मोट॥ अंजन आड तिलक आभूषन सचि आयुध बड छोट। भृकुटी सूर गही कर सारँग निकर कटाछनि चोट ॥ १६ ॥ ' रही दै इति । सषी की उक्ति नाइका प्रति। के हे राधे तू जो धुंघुट की पट की ओट कर रही है सो कैसी है मानो मानरूपी जो गढ विकट है तामें मनमथ बैठो नह के अग्र भाग ते पट पकरे है सोई कील है। असुलछन मान को लछन सोई कपाट दयो है। दृग द्वार विषे अकोट कोट को भीतर को कोट अरु भीतर के भाग में कृष्ण जो भूपति है तिन को भाग जो अधर रस ताकी मोट कहैं गठरी अंजन अरु आड अरु तिलक अरु और आभूषन छोटे अरु वडे ते करे हैं जिन हथियार अरु भृकुटी कुटिल जो है सोई सारंग कमान औ कटाक्ष जो है सोई वान लगाइ बैठो राग विलावल। । सारँगरिपु की ओट रहे दुरि सुंदर