पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१४९

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[ १४८ ] सुमिरो को काहि॥ को मुष भ्रमर तास जुवती को को जिन कंसहते। हमरे तो गोपति सुत अधिपति बनिता और रन ते । मोरज रँध्र रूप रुचि कारी चिते चितै हरि होत ॥ कबहूँ कर करनीस मैतिले नेक न मान के सोत । ता रिप समै संग सिमुलीन्हे पैआवत तन घोष। सूरदास स्वामी मनमोहन कत उप- जावत दोष ॥ ३४॥ हरिसुत इति । गोपी की उक्ति । हरि जो पवन तिन के सुत मकर- ध्वज सो नाम काम को हरि के तन में है ह्यां कहै को कौन की बातें। ज्ञान ध्यान समेटि आय है औ भ्रमर जो ऊधो है तिन के मुष में जो निरगुन ब्रह्म है सो को है औ ताको तिया जो माया है सो को है। औ कंस मारो सो को है। हमारे गोपद जो कृष्ण हैं सोई अधिपति राजा हैं औरन तें हम तें नाहीं बनत कैसे हैं मोरपछ धारन करें हैं हमारे चित्त को हेरत कवहूं हाथ सों हाथ पकरे हमारे मान को बढाव हैं। औ अपमान करै हैं । ता मान को रिपु जो बसंत है तामें बालक लीन्हे घोषन में आवत हम देषे ऐसे जो मनमोहन हैं ते काहे दोष उपजावत हैं ॥३४॥ राग धनाश्री । हरि हम काहे को जोग विसारी। प्रेमतरंग बूडत बृजबासी तरत स्वाम