पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। १४९ सोडू हारी ॥ रिपु माधव पिक बचन सधाकर मरुत मंद गति भारी।सहि न सकत अति बिरह बास तन आगि सलाकनि जारी । ज्यौं जल थाके मीन कहा करै तेउ हरि मेलि अडारी ॥ बिजय अधोमुष लेन सूर प्रभु कहिअहु बिपति हमारी ॥ ३५ ॥ हरि हम काहे को जोग । गोपी की उक्ति हरि ने हम को काहे को बिसारी । प्रेम की जो तरंग है तामें चूडत बृजवासी पैरत से हारे हैं। माधवरिपु पावस औ पिक बचन औ चंद्रमा औ मंदगति मारुत इन्हें बिरह की लास सों हम नाहीं सहि सके हैं। इनते आगि जरै है बिजय को उलटो अर्थ अजब तरह के प्रभु को कहियो की अजब बिपति गोपिन को है ॥३५॥ राग धनाश्री। चौबीस चतुष्पद ससि से बीस मधु- कर अंग अंग रस कंद नवीन। तोल निले मिलि घटा विविधि दामिनि मनी षोडस सृगार सोभित हरि होन॥ फिरि फिरि चक्र गगन मैं अमी बतावत जुबती जोग मौन कह कीन। बचन रच- न रम रास नंदनँदन से बहियो पौन