पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१५३

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E [ १५२ ] किहि कारन सारंग कुलहि लजावत॥३६॥ दधिसुत चंद मुष जलसुत कमल वनचर मृग वरदो पक्षी चक्रवाक। सारंग भ्रमर सारंग सुगंध हीन देषी अचंल ओट कर सारंग चंद सुष पावै । हे सारंग राधे बृषभान कुलन लज्जा ॥ ३९ ॥ सषी मिल करहू कछू उपाउ । मार मारम चढ्यौ विरहिन निदरिपायोदाउ॥ हुमासन धज जात उन्नत बछी हर दिस बाउ। कुसमसररिपु नंद बाहक हहर हरषित गाउ ॥बार भव सुत तासु मावर अब न करिहों काउ। वार अबकी प्रान प्रीतम बिजै सषा मिलाउ ॥रितु बिचार जु मान कोनों बहै वहकि न जाउ । संग सषी सुभाव रहि हो सूर सिर मनि राउ॥४०॥ _ हे सपी उपाउ करो । हुतासन धुज बात मेघवाउ बहन लागो कुसम- सरंरिपुनंदन स्वामकार्तिक वाहन मोर बोले। बारिभव विष सुत मद भावना नहीं करिहों । बिजै सपा कृष्ण ॥ ४०॥ - छन पल राउरे की आस । करन नाव मपंच संज्ञा जान के सब नास ॥ भूमि- धर अरि पिता बैरी बांध राषि पास ।