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पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१५४

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सिंधुसुतधर सुहित सुत गुन गहक गोपी गास ॥ भानअंस गिरीस आषर आदि अंग प्रकास । सूब फिर फिर सूर- मुत की परन चाहत. पास ॥ ४१ ॥ पंचवस ४० संज्ञा मन भूमिधररिपु सामिकातिक पिता बैरी काम। सिंधुसुतधर सिव हित कृष्ण सुत काम नाम समर समरन गुन कोप सो भी गांसे है सूर सुत । अम की फांसी ॥ ११ ॥ प्रभ कब देषिहौ मम ओर । जान आपन आप ते गिरनाथ गाठी छोर ॥ श्रवन बचन बिचार सेनापति मुआनन भोर । दिसा बस तस कहत जानत सात साषी जोर ॥ जगा जोनो मेल की सुधि कोजिये रुचि जोर । सूर निपट अनाथ भाषित जुगल बर करजोर ॥४२॥ प्रभु इति । गिरनाथ भव संसार श्रवनश्रुत सेनापति आनन शास्त्र दिसावस १८ पुरान सात मुनि । जगाजोनी नाम अजमेल मिली अजा- मेल की सुधि करो ॥४२॥ संदर स्याम सोभा देषि।वार ससि के आदि कोटिन कोटि लाजत लेषि॥ मीन रिपु के सुंन गुन मन गहत बरबस आन।