पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ap सुबाइस भषत नाहीं विरष उन की ओर ॥ बिरस रासिनिसुरत कर कर नैन बहु जल तोर । तीन त्रिवली मनहु सरिता मिली सागर छोर । षटकंध अधर मिलाप उर पर अजयारिषु की घोर । सूर अबलान मरत ज्यावो मिलो नंदकिसोर ॥४७॥ हे हरि तुम बृज के चोर काहे भए । तिहारे बिरह मदन के झकझोर ते राधा की यह दसा भई है । एक कमल कर कटि पर धरे है या साध्य बसाना लछना तें जामें आरोप सोई कहै है कमल में कर को सिंह में कटि को एक पै ससि रिपु राहु पाटी एक कमल मुष पर दो नेत्र तें इक रक जागत है । एक सषी कर पकर कहत है वाइस तज सुरत सुरत छोड के कछू भाषत बोलत काहे नाही अथवा षात काहे नाहीं एसी बेरस ए ससि न वै गई है। आंसू ढारति है सो त्रिवली तट आवत कुच के मध्य तें अरु दोई कुच हो मानो तीन नदी समुद्र में मिली । अथवा आसू गंगा का जल मिल जमुना सिंदूर मिल गिरा यह तीन सरिता. षट कंध स्याम- कार्तिक तिन को माम सक्तिधर सक्तिधर पान अधरन पर आय रहे हैं। अजयारिपु उद्दीपन उद्दीपन उर पर घोर भयो है। ऐसी जो अबला विन को मरत जियावहु हे नंदकिसोर ॥४७॥ राग कर्नटी। देषि रे प्रेम प्रगट हादस मीन । ऊधो एक बार नंदलाल राधिका बन ते आवत सषी ही सहित गिरिधर रस २१