पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१५७

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- nege: [ १५६ ] अंतर गति तन पीरो जनु पातें। गद- गद बचन नयनजल पूरित बिलष बसन कस गातें ॥ मुक्तो तात भवन तें बिछरी मीन मकर बिललातें । सारंगरिपु सुत सुहृद पती विन दुष पावन बह भांते ॥ हरि सुर भषन बिना विरहाने छीन लई तन तातें । सूरदास गोपिन परतिज्ञा मिलहु पहिल के नातें ॥४६॥ वृज की का बातें का कही । गिरतनयापति अग्नि समान विरह तें जरती हैं । बसन मलीन हो रहे अंतर की गति हरि सूज हित अरुन गत पंग हो रही तन पीयरे पात सो। गदगद सुगम सुक्ता तात जीवन ताते बिछरत मगर मीन की रीति तें बिललाति । सारंग पर्वत रिपु इंद्र सत अर्जुन मुहद कृष्ण पति बिना दुष पावल । हारे बानर सुर सुकंठ । अर्थ मुंदर कंठ भाषा विन है गयो छीन ? गई हैं तातें मिलो ॥ ४६॥ - हरि कत भये हज चीर। तुहरे मधुप बियोग राधे मदन के झकझोर ॥ एक कमल पर धरे गजरिपु एक कमल पर ससिरिपु जोर । दो कमल इक कमल ऊपर जगी इकटक भोर ॥ एक सपी मिल हँसत कहत पेंच कर को कोर। तज