पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१६०

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। १५९ । जुबतो जोग मौन कहुं कीन। बचन रचन रस रास नंदनंदन ते बहियो यो न हृदय लौ लीन ॥ नंद जसोदा दुषित गोपी गाय खाल गोसुत सब मलिन गात दिन हो दिन दुषीन । बकी बका सकटा टन केसी बछ वृषभ रास मै अलि बिन गोपाल इनि बैर कीन । उद्दव इहाई मिलाडू परै पाइ तेरे सूर प्रभु आरतिहरै भई तन छीन ॥४८॥ देषि परे । गोपी की उक्ति । हम को प्रगट हम को प्रगट वारह मीन देषि परे । जा समें नंदलाल राधा सपीसमेत गावत रहे ता समै तौन कुंज में गए जहाँ बहुत पुष्य रहे औ अलिगुंजत रहे वह सुष देषि मैं आनंदित भई । मीन की तपसील राधा के औ कृष्ण के औ सपी के छह नेत्र तिन के छह प्रतिबिंब षट उडगन राधा सषी की हीरा की वेदी कृष्ण को नासा मोती ए तीन औ तीन प्रतिबिंब षट मणिधर राधाकृष्ण सषी की चोटी छाती पै परी है तीन तिन के प्रतिबिंब चौवींस धातु सुवर्ण रजत ताम्र लोह कृष्ण को पीतांवर राधा सषी को अंगवर्ण ए सुवर्ण धातु इसिवो रजत का चरण लालिमा तान परम की स्यापता लोह ए तीन चौक बारह प्रतिबिंब ऐसे कै औ बारह चौबीस धातु तीनो का मुष आ पाताब छ चंद्र राधा औ सपी के चारि तरौना औ कृष्ण के दोय कुंडल ए छह तिन का छह प्रतिबिंब ए बारह पतंग कहैं सूर्य द्वादसै मधुप तीनो की छह पुतरी तिन का प्रतिबिंब ए द्वादस अलिमानो कहै जानो ॥४८॥ वालम बिलम बिदेस रहोरि । भूषन