पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१६२

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उपसंहार (अक्षर) ख। बाबू चंडीप्रसाद सिंह संग्रहीत । हरिसुत पावक प्रगट भयोरी। मारुतमुत भाता पितु पूरोहित ता प्रति पालन छाडि गयोरी ॥ हरसुतवाहन ता रिपु भोजन सो लागत अंग अनल भयोरी । मृगमद स्वाद मोद नहिं भावत दधिसुत भान समान भयोरी ॥ बारिधसुतपति शोध कियो सखि मेटि दकार सकार लयोरी। सूरदास प्रभु सिंधुसुता बिनु कोपि समर कर चाप लयोरी॥ ५० ॥ एक सखी दूसरेसे कहती है कि हरि श्रीकृष्ण सुत प्रघुम्न वह कामदेव के अव- तार हैं सो पावक के समान हुए। मारुत वायु सुत भीम भ्राता अर्जुन पिता इन्द्र पुसहित बहस्पति बहस्पति का नाम जीव सोजीव के प्रतिपालन का बाना जो था सो छाड़ि गये । हर सुत गणेश बाहन मूस अरि सांप असन बतास सो अग्नि के समान लगता है । वा हरसुत वाहन मूस रिपु सांप भोजन चन्दन वा हरसुत श्यामकत्तिक बाहन मयूर भोजन साँप शेष अर्थ पूर्ववत् । मृगमद कस्तूरी वह पुष्टि और सुगन्ध के लिये भोजन में एड़ती है सो भी नहीं पसंद है । दधिसुत चन्द्रमा तिस में ठंढई अमत श्रवता हे सो सूर्य के समान गरम लगता है। बारिध समुद्र सुता लक्ष्मी पति विष्णु, सो क्रोध किये हैं और विष्णु दयानिधि हैं सो दया मेटि गया और सकार नाम सूल सो क्रोध हो गए । सूरदास जी के प्रभु श्री कृष्ण सिन्धुसुता लक्ष्मी सो लक्ष्मी विना क्रोध करिके समर में चाप लिये हैं ॥ ५० ॥ माधो विलमि बिदेस रहोरी। अमर-