पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१७१

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। १५० । सुचि भंडीर विपन मनहरना । रविजा कुंज सनख नग धरना ॥८॥ आन ललित लावण्य तनी के । देहु दैव परम प्रिय जीके । जब लगि जियन नाथ संसारा। सो प्रमोद किमि विसरन हारा ॥९॥ अस प्रकार उतकंठित रहना । बंदाबिपुन अहिर निस कहना। काल पाय तब भक्त उपारा। लिए संग जादव परिवारा ॥१०॥ दोहा-करि कौतुक करुनायतन , निज बिकुंठ कल धाम । गए गमन करि भमन मुद , रमारमन , अभिराम ॥ १ ॥ चौपाई। से जादव हरिभक्त सुजाना । तहांपि जोरि जुगल निज पाना । बंदावन दरसन अनुरागा । नम्रत विनय करन अस लागा ॥१॥ चलन होहि तुब दीन सनेहू । कब कृपाल बंदावन तेहू । सो प्ररण्य कल कुंज सुहाए । दीननाथ मोरे मनभाए ॥२॥ बिसरत सोन भक्त सुखदाई । एक बार प्रभु देहु दिखाई । तासु कथन सुनि त्रिभुवनराई । बोले बदन बचन मुसकाई ॥३॥ सुनहु मीत पूरवत ताहीं। मोर गवन वृंदावन माहीं। अब न होहिं पय भक्त सुजाना । मैं परिवार सहित निज नाना ॥४॥ कुंज कुंज राधा जुत चारू । तहां निवास करहुं मन हारू। .. ते मथुरा वृंदावन जाही । जन बैकुंठ अधिक प्रय मोही ॥५॥ जब ते तज्यो मनोहर नगरी । कलित कुंज लीला निज सगरी। तब तें जद्यपि मोर सुहावा । इह बैकुंठ अखिल सुख छावा ॥६॥ तद्यपि तिहि समान सुभदाई । उपज्यो नाहिंन तनक सुख भाई। जिमि बारानिसि संकर काहीं । विदत बिस्व प्रिय मानस माहीं ॥७॥ तजत न तासु दैव त्रिपुरारी । तिमि मथुरा मोहि प्रानन प्यारी । अजहुँ स्मरन होत मन भाई । ललित बाल लीला सुखदाई ॥८॥ दोहा-मृतका भक्षण पूतना , शकट विभंजन मित्र । अरजुन जयमल मदहरन , अघ बक बदन चरित्र ॥१॥ काली पद क्षय करन पुनि , मोह नलन भव देन । बंदावन बंसि बजन , चरन चारु बर धेन ॥२॥ धयनक बधन प्रलंभ पुन , त्रिणाबरत बस काल । वृंदावन रक्षाकरन , नग नख धरण रसाल ॥३॥ रचन रास लीलादि पुनि , बचन सखन सखि संग ।,