पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१७२

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केसि बिध्वंसन नंद कल , लातन हृदय उमंग ॥४॥ दावानल कर समन पुन , ग्वालन सन मन चाउ ।। बनबन बिहरन सजन सुन , हनन कंसरिपु राउ ॥५॥ जननि जनक बंधन मुकत , चरित चारु इत्यादि । जब जब होत स्मरन इह , उपजत हृदय दुखादि ॥६॥ चौपाई। सदा रहत मानस • उतकंठा । तजि निज रुचिर धाम बैकुंठा । पुनि कब बपुख पूरक्वत धारी । अदभुत करहुं चरित मनहारी ॥१॥ जे जन भक्ति निरत बड भागे । मोर प्रेम पावन रस पागे। हृदय कुतरक कपट सब लोई । मोर रुचिर लीला कृत जोई ॥२॥ जथा विधान रास बिरचाई। गायन स्त्रवन करहिं मन लाई। सो साक्षात विस्व सुभचारी । मोर सरूप भक्त व्रत धारी ॥३॥ मथुरा धारि जनम त्रिय जोई । मोर ललित उतसव पर होई। सो मोहि जसुमत मातु समाना । सुनहु आन अब भक्त सुजाना ॥४॥ जे नर मोर जनम दिन लेखी । धारि रुचिर बृत भक्ति बिसेषी । बाल रूप. मम पूजन करहीं । आवागवन सहज स्त्रम हरहीं ॥५॥ करि प्रवेस मथुरापुरि माहीं । जोजन करहिं रटन मोहि काहीं। भक्ति मोर. सई मानन प्यारू । ताकर तरन सुमन संभारू ॥६॥ अब तोहि जोपि भक्त बडागा। मथुरा गवन प्रीति अनुरागा। तो अब सुनहु कथन कल मोरा । संतत भक्त सृष्ट हित तोरा ॥७॥ जहि तें तहां सजन तुब जाई । सोऊ लेहु सुख कीरति पाई । अस कहि कृष्ण दैव भगवाना । लागे - तासु प्रबोधन ज्ञाना ॥८॥ कलीकाल संध्या ... अवसाना । मथुरा प्रांत भक्त गुन खाना । सुभ्रत विम- स उपजाई । मथुरा मोर ललित पुर आई ॥९॥ मोर जनम लीला गत परू । करत करत गायन प्रत धारू । सोड अखंड सुजस सुख जोही । होहिं भक्त जन प्रापत तोही ॥१०॥ बहुरि मोर लीला मन भाइन । पाकृत पदन सफुट जव गायन । कीन तुमहुं-संगीत प्रकारू । सुभ्रत ललित प्रेम रस सारू ॥११॥ सुनत लोक कलिकाल मझारा । हुइहैं भक्ति निरत संसारा। बढहि मोर चरनन अनुरागा । उधरहिं तुव प्रसाद बड भागा ॥१२॥ पै तुव जनम अंध दृग हीना । जननि जनक असै देखि प्रवीना ।