। १७३ । अस प्रकार जब दीन सहाए । विदत पुरान वेद स्रुति गाए ॥३॥ मोरे कसन होहिं तब मय्या । जानि दीन दृग हीन सहय्या ।। तब अस सुनत बचन बर ताहू। साधु जठिर दायां बस काहू ॥४॥ बोल्यो सूर मातु पितु काहीं । तुव न करहु चिंता जिय माहीं। हरषि जाहु सुभ्रत निज गेहू । तुव दृग हीन बाल बर एहू ॥६॥ मोरे बसहिं सदन सुख मानी । अस कहि गहत संत सुभ पानी । चल्यो प्रसन्न लेत कल भवने । उत पितु मातु सदन निज गवने ॥६॥ साधु सनेह प्रीति अबिलोकी । भई प्रसन्न मातु गत सोकी। सूरदास मानस अनुरागा । प्रमुदित बसन संत ग्रह लागा ॥७॥ पूरब चरित कृष्ण कल गायन । रह्यो सुनत सादिर मन भायन । आपु प्रेम जुत भक्ति उमंगा । वैष्णव संत जनन कर संगा ॥८॥ नृत्य गीत गायन करि चारू । कृष्ण चरित्र विमल मन हारू। प्रभु अदभुत लीला जिमि कीनी । आद उपांत स्रवन करि लीनी ॥९॥ तासु प्रसाद कृष्ण भगवाना । सो पूरब संचित निज ज्ञाना । अनुभव भयो बिदित सब भास्यो । दैव चरित लीलादि विलास्यो ॥१०॥ दोहा-भयो छकत उनमत्तवत , प्रेमासुव करि पान । कृष्ण चरित पद नघल नित , निज विरचत रुचि मान ॥१॥ चौपाई। अस प्रकार कृत नवल सुहाई । भक्त सृष्ठ कल कुंजन जाई ।। करि प्रति दिवस मधुर स्वर गायन । भयो कृष्ण पद भक्ति परायन ॥१॥ मथुरा निवसि सुजस सुख लय्यौ । सूर विदत सब दे सन भय्यौ । निरमत तास ललित पद पावन । संस्रति गाय लोक मन भावन ॥२॥ बैष्णव भए भक्ति · रतनागर । भक्त प्रधान सुजस बन सागर । सरदास हरि गुन गन गाते । जहं जहं फिरहिं भक्ति मदमाते ॥३॥ तह तह भक्ति व्यवस अनुरागे । पाछे फिरहिं तास प्रभुलागे । सूर चरित पाछिल भगवाना । ग्वाल केलि बन धेनु चराना ॥४॥ निज अनुभव इत्यादि सुहाए । देखत रहत भक्ति सरसाए ॥५॥ ब्रह्मानंद मगन दिन राती । प्रेम भक्ति कछु कही न जाती ॥६॥ दोहा- एक दिवस मारग चलत , विधुन कूप कल कोय । गविहीन चीन्यो न कछु , लग्यो भक्त च्युत होय ॥१॥
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