पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[ १७४ ] चौपाई। तब भगवान भक्त रखवारे । अद्भुत गोप बैस निजधारे ॥ गहित करन कर तुरत मुरारी । भक्त कप चुत लीन निवारी ॥१॥ करि कर हरण त्रास कर केरा । सूरस परस लेत जीय हेरा ॥ इह कर जानि परत नर नाहीं। करिबिचार करुना निधकाहीं॥२॥ कर ते लीन पकरि कर संगा । कहि सबचन मन मोद उमंगा ॥ अबन तजहुँ बिनु सांच बखाने । तब भगवान पदन मुसकाने ॥ ३ ॥ सूर करन कर करिवर जोरा । चले छुडाय भक्तचित चोरा ॥ अस जीय जानि दैव चतुराई । ब्रह्मानंद सूर सुख पाई ॥४॥ मानत भयो भूरि निज भागा । कर सों कर कृपाल जब लागा॥ गदगद गिरा प्रेम दृग बारी । बोल्यो बदन बचन मनु हारी ॥५॥ वंदहु बार बार प्रभु तोही । जो अस निबल जानि जीय मोहीं॥ केसी कंस असुर मद गंजा । लीन छुडाय सवल कर कंजा ॥६॥ दोहा-काह भयो कर तें छुटे , करन धार भवसिंधु । मन ते छूटन कठिन जन , भक्त कुमद उर इंदु ॥१॥ अब तो बलकर तोरिकर, चले निबल कर मोहि । पै मन ते टुटों न जव , तब देखों प्रभु तोहि ॥२॥ चौपाई। सुनि कटाक्ष मय बचन सुहाए। सूरदास कर प्रभु मनभाए ॥ . हरषे दीनदयाल भगवाना । कीन स्परस दृगन तिहि पाना ॥१॥ ततक्षण अंध नयन जुग तासा । असल बिमल कल जोति प्रकासा ॥ पाय दिप्ति अस सूर सुजाना । सनमुख कृपासिंधु भगवाना ॥२॥ कलित कंजलोचन घनबरना । आनन हृदय भक्त तमहरना ।। चारु लिलाट खोर श्री खंडन । माल जयंति जनन मनमंडन ॥३॥ जज्ञोपवीत पीतपट राजा । निज छवि कोदि मदन मद लाजा ।। चितवनि चारु मुनिन मन मोहन । धृत गोपाल बेस बर सोहन ॥४॥ मूरति बिमल बाल बल भय्या । निरत प्रवर परचारन गय्या ॥ सूर बिलोकि रूप मन हरना । पयो दंडवत चरनन धरना ॥ ५॥ सुमरिं कृष्ण जब सीस उठाया । कीन तुरंत मुगध प्रभु माया ॥ जानत भयो सर मनमाहीं । गोप बाल नँदनँदन काहीं ॥६॥ लग्यो बहुरि अस बदन उचारन । तुमहुँ कूप चुत कीन निवारन ॥