पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१७७

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तुव हित देन दरस मन हारू । इह मैं कीन चेष्ट निज चारू ॥११॥ दोहा-अब मथुरा तुव गवन करि , मोर चरित गुन गान ॥ ..... करि गायन भव पूर्ववत , बिचरहु अभय सुजान ॥१॥ भी चौपाई। सुनि प्रभु बचन सुखद अभिरामा । सूर दंडवत करत पनामा ॥ बोल्यो आज धन्य जगदीना । जेहि इन दृगन दरस प्रभु कीना ॥१॥ मुनि जोगिन सुर दुरलभ जोई । मोरे सुलभ आज जग सोई॥.. अब न दैव कछु संस्रति कामा । एक स्मरन लोर अभिरामा ॥२॥ मोरे हृदय लालसा छाई । बिसरहिं सोन भक्त सुखदाई ॥ अरु तुमार माया बलवाना । करहिं न मोहि मुगध भगवाना ॥३॥ हे कृपाल कल कमल बिलोचन । हृदय भक्त जन सोच बिमोचन॥ जिन नयनन अस रूप तुमारा । मैं प्रतक्ष प्रभु लीन निहारा ॥४॥ तिन सन जगत बिलोकन काहीं । दीनदयाल मोरे रुचि नाहीं ॥ ताते. करहु पूर्ववत मोरे । दृग, बिहीन बंदहुं प्रभु तोरे ॥५॥ तुब सरूप नित दीन सनेहू । देखत रैहुँ दिवस निसि एहू ॥ . करि अस बिनय बदन अनुरागा । भयो बिराम सूर बड भागा ॥६॥ बोले कृष्ण भक्त चित चोरा । सूर कथन सब संतत तोरा ॥ होहिं सत्य संसय कछु नाहीं । भाषि बदन अस त्रिभुवनसांई ॥७॥ भये लुपत प्रभु भक्त उायो । उठे सूर जन स्वपन बिचायो॥ जुगल अंध लोचन निज पायो । प्रभु पद सीस मनहिं मनभायो ॥८॥ निज कलपत-पद पावन चारू । लग्यो करन गायन मन हारू॥ उदय अरन तजि बिपन सधाए । जमना तीरं भक्त बर आए ॥९॥ करि सनान गुन गन प्रभु गाते । मथुरा आय भक्ति मद माते ॥ भजन प्रभाव देखि अधिकाई । सादिर करहिं लोक सिवकाई ॥१०॥ दोहा-सबकर हित जीय मानिनिज, द्विज बिरक्त संसारु । रटन कृष्ण गुनगन निरत, सुर भक्त व्रत धारु ॥१॥ चौपाई। अवसर एक मलेछ सुहावा । बिदत दलीस लोक सब गावा ॥ संजुत भक्ति प्रीति हरघाए । तास सूर जन लीन बुलाए ॥ १ ॥ आवत देखि भक्त अभिरामा । साह कीन उठि दंडप्रनामा ॥ सादिर सूचि आसन बैठारे । भक्ति पूरबक वचून उचारे ॥ २॥