[ १७७ । तुब जादव प्रभु लोगन गाए । भक्त कृष्ण भगवान सुहाए ॥की मोर प्रश्न कर दीन सनेहू । देहु उतर उर हरहु संदेह ॥ ३॥ सदन मोर प्रभु अगनित भामा । एक तें एक सरस अभिरामा ॥ तिनहुं मध्य जादव कुलबारी । ऐहिं कोऊ किन भक्त मुरारी ॥४॥ सुनि दलीस अस कथन सुहावा । सूर बदन अस वचन अलावा ।। सुनहु धरन नाइक बड भागी ! करहुं कथन कछु तुव हितलागी ॥५॥ जिहितें तोर मनोरथ' एहा । अवाहिं होहिं फुर बिगतसंदेहा ॥ इह तुमार संकुल बर नारी । तुमहिं देखि पुनि मोहिं निहारी ॥ ६ ॥ क्रम ते एक एक अस आई । करहिं गमन इत मारग राई । तिनहुं मध्य तब कर त्रीय जोई । सो निज सकुचलाज सव खोई ॥७॥ मोहि सन करहिं रुचिर संभाषा। होहिं तुरंत बहुरि मृत तासा ॥ साह सुनत अस दीन रजाई । महिषी सुनत सकल चलिआई ॥८॥ एक एक करि नम्र प्रनामा । चली जात भामन निज धामा ॥ आई एक सबन ते पाछे । पति प्रिय रूप ललित गुनआछे ॥९॥ दोहा-निरखत सनमुख हरषबस , कहि सबदन मुसकाय ।। कहि तें कीन आगमन तुब , मोर मरम कछ पाय ॥१॥ । चौपाई। देखत कहि ससूर तिहि ओरा । सुभ्रे मोहि मरम सब तोरा ॥ भामन सुनत चरन गहि लीने । देखत सबन प्रान तजि दीने ॥१॥ महिषी आन देखि अस तासा । लागी रुदन करन संभाषा ॥ साहु बिथत मानस बिसमायो । धरत धीर पुनि बदन अलायो ॥२॥ बंदहुं बगर बार अब तोही। भगवन करहुं कथन सब मोही। कोइ हरही भवन मम भामा । जहि अस तज्यो बपुष निसकामा ॥३॥ तब पूरववतहि कथा सुहायन । लागे सूरदास मुखगायन ॥ इह मथुरा पुरि वसहिं सुहाई । बगर बधू सब लोगन गाई ॥४॥ हाव भाव कल निरत परायन । कला प्रवीन परम कटु गायन ॥ सभा महिंद्र धनक जन जाई । निज प्रभाव गुन लेत रहाई ॥५॥ काहु धनाड्य काल सुभ पायो । पानिग्रहन निज सुवन रचायो । इहि कहं पठ्यो बोलि सनमाना । लाग्यो होन नृत्य कलगाना ॥६॥ करि-निज कला ललित चतुराई । मूर्छित सभा कीन समुदाई ॥ वब कोऊ आन देस कर राई । इहि नृत गीत देखि चतुराई ॥ ७ ॥
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