पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१८९

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निरखि सुखपाई ॥१॥ कुलहे लसत श्याम सुंदर के बहुविधि रंगवि बनाई। मानउ नव धन ऊपर राजत मधुवा धनुष चढाई ॥२॥ सेतः पीत अरु असित लाल मणि लटकन भाल रुराई। मानहुं असुर देव गुरु सों मिलि भूमिज सो समुदाई ॥३॥ अति सुदेस मृदु चिहुर हरत मनमोहन मुख बिगराई । मानहुं मंजुल कंजन ऊपर दर अलि आवलि फिरि आई ॥ दूध दंत छवि कही न जात कछु अलि पल लप झलकाई ॥ किलकत हंसत दुरित प्रगटत मानों विंदु में विपुलताई । खंडित बचन देत पूरन मुख अद्भुत यह उपमाई । घुटुरुन चलले उठत प्रमुदित मन सूरदास बलि- जाई॥६॥ राग रामकली। देखो सखी एक अद्भुत रूप । एक अंबुज मध्य देखियत वीस दधि सुत जूप ॥ १ एक अवलि दोय जलचर उभे अर्क अनूप ॥ पंज चार चदिगहि देखियत कहो कहां स्वरूप ॥ २ ॥ सिसुगन में भई सोभा करो कोऊ विचार ॥ सूर श्री गोपाल की छवि राखौ यह निरधार ॥३॥ .. ऐसे पद सूरदास जीने गाये पाछै फेर श्रीनाथ जी द्वार आये ॥ वार्ता प्रसंग ॥५॥ - अब सूरदास जी ने श्री नाथ जी को सेवा बहुत कीनी बहुत दिन ताई ता उपरांत भगवद इच्छा जानी जो अब प्रभून की इच्छा बुलायवे की है यह विचार के जो नित्य लीला फलात्मक रासलीला जो जहां करें हैं ऐसी जो परासोली तहां सूरदास जी आये श्रीनाथ जी की ध्वजा को दंडोत करिके ध्वजा के साम्है सन्मुख करिके सूरदास जी सोये परि अंतःकरन में यह जो श्री आचार्य जी महा प्रयदर्शन देंगे अब यह देह तो थकी तातें अब या देहसों श्रीनाथ जी को दर्शन होय तो जानियें परम भाग्य है श्री गुसाई जी को नाम कृपासिंधु है भक्तन के मनोरथ पूरनकर्ता है ऐसें विचार के सूरदास जी श्री गुसाई जी को चितवन करत हैं और भी गुसाई जी कैसें कृपासिंधु है जैसे सूरदास जी उहां स्मरण करत हैं तैसें श्री गुसाई जी इन को छिनई नाहि मृलत हैं श्रीनाथ जी को सिंगार हो तो ता समें सूरदास जी मणि कोग में ठाडे ठाडे कीर्तन करते सो ता दिन श्री गुसाई जी श्रीनाथ जी को शृंगार करत हुते और सूरदास जी को कीर्तन करत न देख्यौ तब श्री गुसाई जी ने पूछौ जो सूरदास जी नाही देखियत सो काहे तब काहू वैष्णव ने