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पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/२८

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रिपु लै सर सदा सूल सुष परे ॥ बाचर नीतन ते सारंग सी बार बार झर- लावे । ईसन सीस मनो कंजन तें बैठी बार चढावे ॥ पनंगसत्रुपुत्र रिपुपितु सुत हित पति कबहु न झाँपै । सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि नाम तिहारो भाषै ॥८॥ उक्त उद्धव की कृष्ण प्रति । एकावरन द्वमिल कूट उदवेग दसा उपादान कछना ब्याघात अलंकार कर राधे क्यों कर इति । सेसभार भूधर परवत ताकी जा. उमा पति शिव रिपु जालंधर तिय वृंदा नल नाम बन वृंदाबन नहीं हेरत बा जक. निवास कमल रिपु चंदधर सिव रिपु काम सूल सलावत । बा नाम जल चर मीन नीतन नयन सारंग मेघ सी झर लगावत है । सो मानो कपलन तें संभ कों जल चढ़ावत है कमल नेत्र कुच संभु पन्नग नाग नाम पर्वत सत्रु इंद्र पुत्र अर्जुन रिपु करण पितु सूर्य सुत सुग्रीव हित रिछ पति चंद। अरु कमल कर मानो जल चढावै हैं। यातें फल उतप्रेछा हू हो सकत है तातें व्याघात उतप्रेछा को संकर है।८॥' बाब परमेश्वर सिंह इस भजन में भी एक स्थान पर अर्थ को दूसरे ढंग से करते हैं । पन्नग नाम सर्प अब सौ का नाम महीधर है और पर्वत का भी नाम महीधर है और महीधर (पर्वत) का शत्रु इन्द्र तिन का पुत्र बालि, शत्रु सुग्रीय पितु सूर्य सुत सुग्रीव हित भालू अर्थात् ऋक्ष (तारा) पति चंद शेष पूर्ववत् । पलटि बरन बृषभाननंदिनी जा पति हित रिपु त्रास । परी रहत ना कहत कबहु कछुभरिभरि ऊरध खांस॥ बात आदि औ जान अंत मिल रिपु पति पतनी तासु। पितु दल पति लषि उदि- त जरत जनु महा अगिन के पास ॥ ताकत नहीं तरनिजा के तट तरुवरमहा निरास । सूरस्याम घन मिलत छुटि है पर कर ग्रीष्म फांस ॥ २६ ॥