पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/३३

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[३२] विरह सांत विरह कहै विरह ते थकिवो विचार है । गाई कहे गाय उधौ उद्धार करो ॥३०॥ टिप्पणी-सरदार कवि ने कुछ घटा बढ़ा कर आगे लिखा है वह ज्यों का त्यों का आगे प्रकाश किया जाता है । बज में आज एक कुमारि। तपनरिपुचलना सु पति हित अंत हीन विचार॥ सचीपतिसुतसत्रुपितु मिकि सुता विरह बिचार । तुम बिना बृजनाथ बरषत प्रबल आंसू धार ॥ बाल ग्वाल बिहाल आई करत कोटि पुकार । राष गिरधर लाल सूरज नाथ बिनु उपचार ॥ ८५ ॥ उक्ति सषी की नायक प्रति । दो-मिल द्वावर्न कूट अलंकार पूर्ववत् अथवा उद्भव की उक्ति कृष्ण प्रति तपन रिपु तुहिन तामें चल मिलावहु दोइ मिलि हेमा- चल भयो ताकी जा पारवति पति महादेव तिन को हित बृषभ अंत हीन ते बष सचीपति इंद्र ताके सुत अरजुन तिन के रिपु करन ताके पिता भानु दोउ मिलि बृषभानुसुता भई सो तुम बिना हे बृजनाथ महा बिहाल है ॥ ८५ ॥ . - नंदनंदन बिन बज में ऊधो सब बिपरीत भई। षगपति व्यास बचन सम कोकिल बोलत बोल हई ॥ भूसुत सखु गेह मे काहू दीपत हार दई । पंथ सत्रु पति सुत सुधारि सर करि तन सूल सई ॥ सिवसुतबाहनसत्रु भोग सुत रिपु भष बान लई। बाजापतिबाहन के सैना बोलत जहर मई ॥ अबकी बेर मिलावहु बृजपति जीवनदान जई। सूरबरी लै जाहु जहां तहां कुबजा कूर