[ ३७] में सीहत मनो अनोक निहार। सूरज प्रभु बिरोध सो भासत बस परजंक बिचार ॥ ३५॥ उक्ति संषी की दुरद हाथी नाम ताको नाम कुंजर मूल नाम जर ताके आदि वरण ते कुंज भए तामे बैठि राधा सिंगार करत है दधिसुत कमल ताके सुत ब्रह्माताको सुत कसिप सुत सूर्य शत्रु राहु भषचंद्र मुष ते दुष को भार विमुष करें हैं जलचर मीन जा मछोदरी सुत ब्यास सुत सुक ऐसी नासिका धरे हैं अनासहार बेसर टूटी नाही अथवा हार नाहीं टूटे बानर हित जामवंत ताकी पुत्री जामवंती पति कृष्ण पतनी जमुना सेवार अवारे तें बाधे बहु विलंब ते सारंग सुत काजर नीकन अछन में दिये हैं मानो अनीक हरवल करे है हे सूरज के प्रभु विरोध सो लगत है परजंक पर (पै) बसि बैठ के विचारो अथवा विरोध सो लगत है इन पदन में ताते विरोधा भास अलंकार है वासकसज्यानाइका ताको लच्छन । दोहा—बिना विरोध बिरोध सो, कही बिरोधाभास । वासकसेज्या जो सजै, सब सिंगार सुख रास ॥१॥३५॥ हेरत हरष नंदकुमार । बिनु दिये बिपरीत कवजा पग छपाईन भार ॥रंच उघरत देष नीकन मान उरवर भेद। परे सारंगरपुन मानत करत अदभत षद॥ निकस सारंग से सु सारंग हरत तन की ताप । सुधाधर मुष पै रुषाई धौ कवन कह थाप ॥ श्रीसुतन ते सरस सागर होत छन छन आज। कियो पति आधीन कर कर बर बिभावन व्याज॥३६॥ LI
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