[३८] उक्त पूर्व या पद विधै विभावना अलंकार भेद स्वाधीनपतिका नाइका है सो कहत है के नंदकुमार आज हेरत है कवजा विपरीत ते जावक बिन दीने पग अरुनता छपाइन में है इहां पहिल विभावना नीकन अछन के रंच उघरत ते उर भेद न मानत है इहां दूसरो बिभावना सारंगरिपु पट प्रतबंध कहै ताको नाही मानत है इहां तृतीय विभावना है सारंग कपोत कंठ ते सारंग कोकिल वचन निकसत तन ताप हरै है इहां चौथो सुधाधर चंद मुष पै रुषाई काने थापी इहां पंचम श्री लक्ष्मी कारज ताते सुषसागर कारन निकसत इहां षष्टम (याको) लच्छन । भाषाभूषन । होत छभांत विभावना कारन बिनही काज १ हेत अपूरन ते जहां कारज पूरन होइ २ प्रतवंधक के होत ही कारज पूरन जान ३ जब अकारन वस्तु ते कारज परगट होइ ४ काहू कारन से जवै उपजै काज बिरोध ५ कबहूं कारज ते जबै उपजै कारन रूप ६ अरु नंदकुमार हेरत इत्यादि पद तें स्वाधीनपतिनाइका पति आधीन जहां रहै पतिका सो स्वाधीन ॥३६॥ टिप्पणी-सरदार कवि ने पग छपाइन भार के स्थान पर पगन लाली भार पाठ और कियो पति आधीन कर कर वर बिभावन व्याज के स्थान पर क्रियो पति आधीन सूरज के विभावन ब्याज लिखा है। चरितावली में सूरदास के जीवनचरित्र में भारत भूषण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने इस सूरसागर के टीका को सूरदास का बनाया अनुमान किया है और सर- दार कवि ने उसी को कुछ घटा बढ़ा कर अपने नाम से प्रकाशित किया है परंतु जो विशेष अनुसंधान से हरिश्चंद्र जी ने सूरसागर के टीका को संग्रह किया था उसी से यह पुस्तक प्रकाश की जाती है । अब यह निश्चय करना कंठिन है कि यह टीका किस ने बनाया है परंतु यह तो ठीक है कि सरदार कवि ने इस तिलक को नहीं बनाया है । क्योंकि कोई २ भजन इस टीके में तीन तीन बार आ गये हैं और अर्थ एक ही है । कहीं कहीं कुछ घटाया बढाया है । बराढ़ी निवासी पंडित महादेव पाठक कहते थे कि सरदार कवि ने जो. सूरसागर का टीका छपवाया है उस में पचासों भजन का अर्थ मेरे यहां से नारायण कवि ले गये थे । जो हो मेरी राय है कि पुराना टीका और इधर उधर के स्फुट मिले हुए अर्थ को संग्रह कर और आदि तथा अंत में कुछ कविता लिख कर सरदार कवि ने सूरसागर को अपने नाम से प्रकाश किया है क्योंकि हस्त लिखित पुरानी पोथी है।
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