सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आदि मुत सुत की जननी प्रीतम माहीं। रहत तजै परबस प्रहार त्यों आस तजत तन नाहीं ॥ नृप भूषन कपि पितु गज पहिलो आस षचर की छोडै ।तिथ नछत्र के हेत सदाई महाविपति तन ओडै ॥ त्यों मम प्रान नबान सबन को आन ऐंच सी राषी । सूरजदास अधिक का कहिये को सच सिव साषी ॥४३॥ __ उक्ति पूरव । मोहन मो (मेरे) मन बसो कुलकान मातादि को जाने कहां है जैसे सारंग मृग वा राग वा बान अर्थ मृग राग के हेत बान सहत डोलत नाही रंभा पति सुत सत्रु करण पिता सूर्य नाम पंतग ते फतींगा नय नदी अहि साप अंत ते दीप में जरत है तन अंग पय जल नीत के आदि वरण ते अंजनी सुत हनुमान ताके सुत मकरधुज माता मछरी प्रीतम जल में रहत हैं परबस ते तजत है तो भी प्राण नाहीं राषत नृप भूषन चामर कपि पिता त्रिमूरत गज करी आदि ते चात्रिक पचर घन की आस छोड़त (छोड़े) है तिथि पंद्रहे नछत्र स्वाती को चाहत (पपीहा) है तैसही मेरो प्राण सब की वान लई है अधिक का कहै शिव सत्रु काम साषी है इहां जो सब को मोहन आप में राषनहार सो मेरे मन बस गयो यातें कवि को अभिप्राय अधिक को है लच्छन । दोहा-अधिक दीर्घ आधार ते, जब आधेय गनाय ॥ १३ ॥ कुंजमग में आज मोहन मिलो मोको बीर। चली आवत थी अकेली भरे जमुना नीर॥ गहे सारंग करन सारंग सुर समा-