[१७] रत बोर। नैन सारंग सैन मोतन करी जान अधीर ॥ आठरवि तें देष तब तेंपरत नाहीं गम्हीर । अल्प सूर सुजान का सो कहो मन की पीर ॥४४॥ ___ कुंज मग मी आज मोहन मोको मिले मैं जमुना जल लिये आवत रही सारंग कमल करन ते सारंग के सुर सम्हारत रहै अर्थ मुरली के छिद्रन तें अरु सारंग जे मृग द्रग हैं तिन तें मेरे ओर सैनकरी तव तें आठवां ग्रह राहु नाहीं देष परत यह अलपता कासें कहों यामे ऐसो जो मारग सो अल्प हो गयो तो अधार अधेय दोऊ अल्प तें अल्पा अंलकार है लच्छन । दोहा—अल्प अल्प आधेय ते, सुछिम होइ अधार ॥४४॥ __आजु अलोलषि अचरज एक । सुत सुत लषित ति पीपी गोपी सुत सुत बांधे टेक ॥ पगरिपु अंग अंग दोहुन के भरत धारकननीक । राग मूल भौ सिव प्रिय देषत दोहुन नाहि नजीक ॥ दोऊ लगत दुहुन ते सुंदर भले अनोन्या आज । सात्यक सूर देष दोहन को करन सकत है लाज ॥ ४५ ॥ उक्ति सपी की (कै) हे सपी आज यह अचरज देषै सुत कहे नंद के नंद तिन ति पी पी कहे छपी छपी तें गोपी परसपर टेक बांधे देष रहे हैं पगरिपु कंटक दोहुन के अंगन में उठे हैं राग मूल सुर शिव प्रिय भंग दोहुन को भयो है नजीक नाही द्वेषत है अरु जे दोई दोहुन ते सुंदर लागत है
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