प्रान। के सुजीवन मूर लेके हरेगी तनसान ॥ मोहि यह संदेह सजनी परी बिकलपान । सूर समुझ उपाइ कर कछु देहु जीवनदान ॥५४॥ भूसुत अंकूर हे सषी अकूर आइ गयो है एहि बेला में सुत (सुत जो है नंद तिन के सुत को लीबे के हेतु सो हे सजनी तू सबेर समझ) सुत कहे नंदनंद के लेन को हे सषी सबेरा समुझ पंडुसुत करण पिता सूर्य तात कहे पुत्र जम होइ के प्राण लेइ गो कै सजीवन मूर नंदनंदन ले जाइगो मोको इह संदेह को विकल्प है सो समुझ के उपाइ कर जीवनदान दे या चित विकल ताते मोह संचारी जह के बहुत विकल्पा अलंकार है। दोहा-चित्त विकल ताते कहत, मोह महा कविराज । ___सो विकल्प जहंकै जहैं, है एहि विध को साज ॥१॥५४॥ दिगजापतिपतनीपतिसुत के देषत हम मुआनी। उठि उठि परत धरनि पर सुंदर मंदिर भई अयानी ॥ सारंग बचन सुनत जीवन की कछू आस उर आनी । भूतनयारिपुपितु सैना की संगिन मति गति ठानी । कासे कहो समूचे भूषन सुमिरन करत बषानी। सूरदास प्रभु बिन बृज है है कहिए कहा सयानी ॥ ५५ ॥ MS
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