पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/५७

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अलंकार कीनो अरु उदित सारंग सूर्य को विचार सारंग चंद आपन घर गयो जानि के स्याम के संग चली कलेस नाहीं पायो यामें धृत संचारी जनायो। "दोहा-कारक दीपक में कहत, क्रम ते बहुतै भाव । धृत संतोष बिचारि मत, बरनत है कविराव ॥ १ ॥५६॥ _मानिन तजो नाहीं मान । करत कोटि उपाइ थाको सुघर सुंदर स्याम ॥ इंद्र दिसि के आदि राषै आदि दरपन बान । दो हकार उचार थाको रहे काढत प्रान ॥ हेमपितु सुनु सबद सैना लगी आप लजाय । जोगि प्रिय भूषन सँभारत सूर अति सुष पाय ॥ ५७॥ उक्ति कवि की कै माननी ने मान नाही तजै नायक बहुत उपाइ करि थाको इंद्र पाकसासन दिस इसान आदि बरन ते पाइ दरपन सीसा वाण सर आदि ते सीस भयो सीस पाय पर धरयो दो हकार ते हाहा उचार करि थाक गयो प्राण निकासबे पै भयो तब तक हेम सुबरन ताको नाम अर्जुन पिता इंद्र सैना मेघ का शब्द सुनि लजाय रही जोगिन की प्रिय समाध अलंकार सूर संभार सुष पायो इहां लज्जा संचारी समाधि अलंकार है ताको लच्छन । दोहा-सो समाध कारज सुगम, हेत और मिल होय । HT. अति सकुचब तें कहत हैं, लाज सबै कवि लोय ॥१॥२७॥ म सजनी निरष अचजर एक । जल हरि हित रिपु सैन पराजित द्वै गए बुज तजि टेक ॥ सो उर राषि साज सजि