पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/५८

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[ ५७ । आई समौ पाडू विन नाथ । व्याकुल के बृषभाननंदनी आपु भई रुच साथ ॥ हरष हरष करषन चित चाहत तेहितें का प्रति नोक । सूरज प्रभुहि सुनावन हारो है को कहु चित ठीक ॥ ५८॥ उक्ति सषी की सषी सों के हे सषी एक अचरज देष जल नाम बा हरि नाम बानर ताको हित पर्वत सत्रु इन्द्र ताकी जो सैना है सो कृष्ण तें हारि के गई सो फिर समुझ के बिन नंद नंदन आई है वृषभानकुमारी को ब्याकुल कीनो आपु षुसी भई है अब हरष के चित पैंचे चाहत यातें नीक न द्वैहै यह कृष्ण को को सुनावै या पद में उदवेग संचारी प्रतनीक अलं- कार है ताको लच्छन । दोहा-चित में भ्रम जहं कहत हैं, सो उदवेग कहाय । कोप पच्छ प्रतपछ पै, प्रतनीक को भाय ॥१॥५०॥ ___ बाम बाम जिन सजनी कीनी। तिन को ऊधो कहाँ बात बढ हम हित जोग जुगुत चित चीनी ॥ पुसपन पति बाहन भष हम संग षातन तनक लाज गति भीनी। बृच्छ भाग धर फिरे सबन के कवन आप तब समुझन झीनी॥ भनित अर्थ भूषन उनही हित कीन भरत चित चाह नवीनी। सूर कहो जो