पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/६०

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विरह में सरूप कीनो है सो देषत बनत कहो नाहीं जाति नीकन नन ते देवस नाम बार ढारत है सो घन कहें पयोधरन पर (मैं) परत है वेद स्रुत श्रवनन में सुंन आकास गुण शब्द नाहीं सुनत नषत हस्त हाथ नाही फेरत सुक्रबाहन दादुर सी सुषाई है बिना जीव जल अरू जीवन पति बिना चंदभाग मन पठाय दयो पिय के संग पंचग्रह जीव रापनहारो पपीहा का है कै पीआर कहत है भनित काव्य चीन्ह लिंग काव्यालिंग आभरन अलंकार कियो यामें औ जडता संचारी कवि यामें करत लच्छन । दोहा-काव्यलिंग सामर्थता, जहँ दिढ करत प्रवीन । _सब कामन ते सुनं हो, सो जडता मति पीन ॥१॥६॥ आवत सुनो नंदकिसोर । आजु मेरी गली हो के करत बंसी सोर ॥ लगे हुलसन मेघ मंगल भरे बिथक सजोर । करन चाहत राष रोके काम कल बल छोर ॥ अंत तें कर हीन फरकत फनिग वाई वोर । नीत बिन बलवान सीषत नीक जानन जोर ॥ काज आपन समुझ के किन करे आप अथोर । बाच अंतर आद जय कर सूर भूषन तोर ॥ ६१ उक्ति नायका की आज नंदकिसोर आवत मै अपनी गली सुनो है वंसी की घोर करत तब तें मेघ पयोधर हुलसन लगे हैं विथक पवन नाम बात पात करबे चाहत हो सो काम रोक राषत है फनीग नाम भुजग अंतहीन ते भुज बाई फरकत है आपनो भलो समुझ काहे न करो नीत बिनु नयन बलवान भुजबान सीषत है सब अथोर कहे बहुत बाच्य अंतर अर्थात जय भादि न्यास अांतर न्यास भूपन अलंकार यामें है हरषसंचारी लच्छन।