पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/५९

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तुमै रुचै हम जीवन जो न मीन गति हीनी ॥५६॥ उक्ति गोपिन को ऊधो प्रति कै जिन बाम टेढी अर्थ कुबरी जिन सजनी करी है तिन जो हम को जोग की सीष दई तो का बठ बात कढी अर्थ उन की बुद्धि चंचल है पुसपन सुमन देवता नायक गणेश बाहन मूस (मूषक)ताको (तिनको) भष कपडा दही हम संग पहिरत पात तनक लाज न करी वृक्ष- भाग कंध पै हमको चढ़ायो भनित काब्याअर्थ पति अलंकार उनहींके हित भरत कियो है जो हम जीव जलमीन गत नाकरी अर्थ बियोग होत न मरी यामें कृष्ण पक्ष ते चपलता संचारी काब्याअर्थ पत अलंकार लच्छन। - दोहा-जहँ कीनी तेहि वह कहा, काव्यअर्थ पति होइ । . बहुत उताइल काज तें, कहत चपलता सोइ ॥१॥५९॥ देषरी बृषभानजा की दसा आज अनूप । बनत नाहीं कहत देषत सरस बिरह सरूप ॥ नीकनन तें देवस डारत परत घन पै हेर । बेद धरत न सुनं गुन के नषत टारन फेर ॥ सुक्रबाहन सी सुषानी बिना जीवन देष। चंद भाग पठाइ दोनी प्रान पत संग लेष ॥ पंच ग्रह राषनि बिचारो वहै सारंग एक। भनित चिन्ह बिचार अभरन राख सूरज टेक ॥ ६ ॥ । उक्ति सषी की सपी से के हे सपी वृषभानुजा की दसा देष जो