पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। ८७ । ताके बीच नेत्र मूंद रापे है सिकारी नाम अहेरी नाग नाम सर्प मनसिज नाम अतन बीच के बरण ते हेरत नाहीं सपिन की ओर अचैन हो रही है हेरत अचैन होत है जामिनी नाम रजनी नौका नाम तरनी काम नाम अतन बीच ते जरत है वाको तन प्राण रावरो मथुरा को चलत सुन सब विध ते हान हो गई है यहां त्रिमिल कूट भाविक अलंकार भलो कियो आपनो अदभुत रूप की तातें हैं गेह में बैठो सब काज तज को जो होन- हार दसा सो प्रतछ देषाबत ताते भाविक भूषन लक्षन । दोहा-भाविक भूत भविष जो, परछित कहै वनाय ॥ १ ॥१२॥ छपे पतिकत जात पेलत कान मेरे प्राना अचलजापतिअंगमूषन मार हित हित जान॥ संभुपतनीपिता धारन बक संघारन वीर। नंद नाहिं निकंद कारन बक बिदारन धीर॥ सेस ना कहि सकत सोभाजान जो अतिउता। कहै बाचिक बाचते हे कहा सूर अनुता ॥६॥ छये नाम गोप पति कत (उक्त जसोदा की कै हे गोपि पत) कहा कान्ह पेलन जात है अचलजापति शिव अंग भूषन सर्प भार पृथ्वी हित इंद्र ताके हित मेघ नाम घनस्याम हे धनस्याम संभुपतिनीपिता गिरं ताको धारन (कर- नहार)हेबक (वकासुर) संघारनहारे बीर नंद नहीं नदना पूतना के निकंदन कारण (करता) अघासुर के विदारण धीर (तुम्हारी) सेस नहीं सोभा कहि सकत उक्त ते जानत है अथवा अत उक्त अलंकार जाने है बाचिक जो शब्द बाच्य अर्थ हो कहा कहो अनउक्त की या पद में बाचिक के चार भेद अतउक्त अलंकार लच्छन । दोहा-अत सै सूरापन कहत, है अति उक्त अनूप ॥ १ ॥९॥ षेली भानुजा के भौन। हों कहत