पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/९५

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। १० । नीके हैं अरु कट पै पीत पट बांधे हैं नटवर बेष बनाये हैं तब नीकन अक्षण में सीतलता व्यापी अरु सब अंग सहरि उठो अर्थ सातुक है (है गयो ) याते प्रतक्ष भूषण देष जो दुष को दरप रहो सो छप गयो इहां नेत्र ते प्रतक्ष अलंकार है लक्षण । दोहा—सो प्रतक्ष मत इंद्रियन, मिले जे उपजै ज्ञान ॥ १ ॥१०॥ _बैठी आजुरही अकेल। आडू गो तब लौं बिहारी रसिक रुच बरखेल ॥ तीन दस कर एक दोज आप ही में दौर । पंचको उपमेय लीनो दाव आपुन तौर॥ अंत ते कर हीन माने तीसरो दो बार । दोडू दस कर दियो समुझत भूल सी कै बार॥ सोरहें सो समुझ लागी हसन हरषत भूर । सूरस्याम सुजान जानी परस ही ते पूर ॥ १०१ ॥ _उक्त सषी की सषी सों के हे सपी राधा आजु अकेली बैठी रही तब लों बिहारी रसिक तहां आय गयो त्रिदस नछत्र हस्त दोइ एक कर के आप दौर के पंचमें मृगसरा ताके उपमेय द्रग दाब (दबाइ) लये तब तीसरो नछत्र कृत का अंत कर हीन करे कृत दो वार कृत कृत मानो राधा ने दो दस कहे उत्तर समुझत भुलानो दयो सो तब लग सोरहे कहे विसाषा सषी आई सुन हंसन लगी कै सूरस्याम तो परसते जानो रहे अब कहा कहती यामे परसते प्रतछ अलंकार जानिए ॥ १०१॥ सारंगपितसुतधरसुतबाहन आजु