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हिन्दी भाषा और उसका साहित्य


समाचारपत्र, मासिक पुस्तक, उपन्यास, प्रहसन, नाटक, जीवनचरित और समालोचनाओं का जन्म इसी काल में हुआ। परन्तु, जहां तक हम जानते हैं, साहित्य का वर्णन पुस्तकाकार आज तक किसी हिन्दी के ज्ञाता ने नहीं किया। हिन्दी की दशा बड़ी ही हीन हो रही है। अनेक विषय ऐसे हैं जिनमें एक भी हिन्दी का ग्रन्थ नहीं। अतएव, इस दशा में साहित्य के इतिहास बनने की आशा रखना व्यर्थ है। हमलोगों के आलस्य और निरुत्साह की सीमा नहीं। अपनी मातृभाषा से हमलोगों को कुछ भी रुचि नहीं। यह बड़े शोक और लजा की बात है। हमको पाश्चात्य पण्डितों की विद्याभिरुचि और उनके उद्योग को देख कर भी लज्जा नहीं आती। हम यात्रा-सम्बन्धी अथवा इतिहास-सम्बन्धी एक छोटी सी भी अच्छी पुस्तक नहीं लिख सकते ; परन्तु फ्रांस के विद्वान् दस हजार मील दूर बैठकर हमारी हिन्दी-भाषा का इतिहास लिखते हैं। यम० गार्सन० ड्रिटासी फ्रांस के निवासी थे । उन्होंने हिन्दी-भाषा का इतिहास लिखा है। यही नहीं, किन्तु १८५० से१८७७ ईस्वी तक इस भाषा में जो कुछ परिवर्तन हुआ और जो जो समाचारपत्र अथवा पुस्तकें नाम लेने योग्य निकलीं उनकी भी आलोचना उन्होंने की है। हार्नले, बीम और नियर्सन साहबों ने भी हिन्दी के सम्बन्ध में कुछ कम नहीं लिखा। परन्तु हमलोग मुंँह फैलाये बैठे हैं। कहीं दो चार उपन्यास लिख कर पेट पालने का हमने यत्न किया; कहीं एक आध मोहिनी अथवा रोहिणी नामक मासिक पत्रिका लिख कर