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हिन्दी भाषा और उसका साहित्य


औपन्यासिक साहित्य सामान्य मनुष्यों को अधिक मनोरजक होता है। इसीलिए उसकी चाह अधिक रहती है। हमारा यह कदापि मत नहीं कि उपन्यास की शाखा साहित्य से निकाल दी जाय। हम यह कहते हैं कि बेसिर पैर की बातों से भरे हुए जैसे उपन्यास आजकल निकल रहे हैं उनका निकलना बन्द होना चाहिए।

नाटिका-भेद और रस तथा अलङ्कार के विवेचन से पूरित पुस्तकों की भी इस समय आवश्यकता नहीं। हम यह समझते हैं कि 'जसवन्त जसो भूषण' जैसे ग्रन्थों से भाषा को कुछ भी लाभ नहीं पहुंँचा। यदि इन ग्रन्थों के बनाने (अथवा बनवाने)और छपाने में जो धनव्यय किया गया वह जीवन चरित, इतिहास अथवा किसी वैज्ञानिक ग्रन्थ के लिए व्यय किया जाता तो भाषा का भा उपकार होता और धन का भी सद्व्यय होता। जैसे अंगरेज़ों ने ग्रीक और लैटिन भाषा की सहायता से अँगरेज़ी की उन्नति की और उन भाषाओं के उत्तमोत्तम ग्रन्थों का अनुवाद करके अपने साहित्य की शोभा बढ़ाई, वैसे ही हमको भी करना चाहिए। इस समय अंगरेज़ी का साहित्य अत्यन्त उन्नत दशा को प्राप्त है। अतएव हमको चाहिए कि उस भाषा के अच्छे अच्छे ग्रन्थों का अनुवाद करके हिन्दी के साहित्य की दशा को सुधारें। इस समय विज्ञान, इतिहास, यात्रा वर्णन,जीवन चरित और समालोचनाओं की हिन्दी में बड़ी भारी न्यूनता है। इस न्यूनता को पूरा करना हिन्दी बोलनेवालों का परम धर्म है।