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साहित्यालाप


इस अवस्था में धीरे धीरे परिवर्तन होता है। जैसे जैसे अधिक शिक्षित जन समाचार-पत्रों के सम्पादन-कार्य में प्रवृत्त होते हैं वैसे ही वैसे परावलम्बन की प्रवृत्ति कम हो जाती है, स्वाधीन विचारों की सृष्टि होती है और सामयिक बातों की स्वतन्त्रतापूर्वक समालोचना होने लगती है। शिक्षा की कमी ही के कारण स्वावलम्ब-समर्थ योग्य सम्पादक कम मिलते हैं। अतएव समाचारपत्रों से होनेवाले लाभों को जो लोग समझते भी हैं वे भी हिन्दी के पत्रों का बहुधा इसलिए आदर नहीं करते कि वे सुचारुरूप से सम्पादित नहीं होते । आशा है, यह त्रुटि धीरे धीरे दूर हो जायगी।

कुछ लोग अँगरेज़ी भाषा और उसके जाननेवालों से द्वेष करते हैं। उन्हें उनकी प्रत्येक बात से अंँगरेज़ी बू आती है। उनको जानना चाहिए कि हिन्दी में समाचारपत्रों का निकालना हमने अँगरेज़ी जाननेवालों ही की बदोलत सीखा है । वह अँगरेज़ी शासन ही का प्रसाद है। अँगरेज़ी में इस प्रकार के साहित्य ने जितनी उन्नति की है उतनी उन्नति करने के लिए हमें सैंकड़ों वर्ष चाहिए। अँगरेज़ी के समाचार-पत्र-साहित्य को, अनेक बातों में, आदर्श माने बिना हिन्दी के साहित्य को हम कभी यथेष्ठ उन्नत न कर सकेंगे। मेरी जड़ बुद्धि में तो सम्पादकों के लिए अच्छी अँगरेज़ी जानना आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य है। मैं तो यहां तक कहने का साहस कर सकता हूं कि हमारे साहित्य की इस शाखा की जो इतनी हीन दशा है उसका एक कारण यह भी है कि