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हिन्दी की वर्तमान अवस्था


भाषा है । परन्तु उसमें भी, अब तक, प्रति वर्ष, अन्य भाषाओं की पुस्तकों के सैकड़ों अनुवाद होते हैं।

हमारी भाषा की शिक्षा और हमारे साहित्य की उन्नति के विषय में गवर्नमेंट और विश्वविद्यालय का जो कर्तव्य है उसके पालन में यदि एक भी दोष न हो, एक भी त्रुटि न हो, एक भी भूल न हो, तो भी उस मार्ग से हमारे साहित्य की सर्वागीण उन्नति नहीं हो सकती। ऐसी उन्नति का होना एक मात्र हमारे हाथ में है । उद्योग करने से हमीं अपने साहित्य को उन्नत कर सकते हैं और उद्योग न करने से हमीं उसे रसातल पहुंचा सकते हैं। और प्रान्तों के राजा, महाराजा, तअल्लुकदार और धनी अपनी मातृभाषा के लिए लाखों रुपये खर्च करते हैं। वे जानते हैं कि अज्ञानों को सज्ञान करना, अशिक्षितों को शिक्षा देना,और ज्ञान-प्रसार के प्रधान साधन उत्तमोत्तम ग्रन्थों के रचयिताओं को उत्साहित करना पुण्य-कार्य है । परन्तु,बड़े दुःख की बात है, इन प्रान्तों में ऐसे एक ही दो रमारमण निकलेंगे जो इस सम्बन्ध में अपना कर्तव्यपालन, करते हों । हिन्दी की वर्तमान हीनावस्था में बहुत कम लोग साहित्य-सेवा का व्यवसाय करके सुख से जीविकानिर्वाह कर सकते हैं । अतएव साहित्य-सेवकों के लिए उत्साह-दान की बड़ी आवश्यकता है।

परन्तु सबसे बड़ी आवश्यकता एक और ही बात को है। हम लोगों में अपनी मातृ-भाषा के प्रम की बहुत कमी है।