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कौंसिल में हिन्दी


मुख़तार बहुत ही थोड़े हैं जो देवनागरी लिख सकते हों, या लिखना चाहते हों । अतएव हिन्दी-भाषा और देवनागरी-लिपि का जानना लाज़मी कर देने से कुछ फ़ायदा न होगा।

इतके बाद माननीय मिस्टर रज़ाअली ने यह उपप्रस्ताव पेश किया---

(झ) प्रस्ताव से---"देवनागरी लिपि में हिन्दी-भाषा"---निकाल दी जाय । उसकी जगह पर---"फ्रेंच, रशियन,इटालियन या फ़ारसी"---कर दी जाय ।

आपने कहा---

(ञ) हिन्दी कोई भाषा नहीं । १९०० या १८९८ ईस्वी के पहले का ऐसा एक भी सरकारी लेख या काग़ज़ नहीं पेश किया जा सकता जिसमें गवर्नमेंट ने हिन्दी को भी कोई भाषा माना हो । जब वह कोई भाषा ही नहीं तब फ्रेंच और रशियन आदि का जानना क्यों न लाज़मी कर दिया जाय ? इससे उन मित्र राज्यों से हमारा सम्बन्ध और भी गहरा हो जायगा जो हमारे साथ लड़ रहे हैं।

(द) इस प्रान्त में इतने आदमी उर्दू बोलते हैं, इतने हिन्दी, इसका हिसाब जैसा बताया गया है, ठीक नहीं। मर्दुमशुमारी के अङ्क विश्वास-योग्य नहीं। मुसलमान शुमार-कुनिन्दों ने लोगों की भाषा उर्दू लिख दी है, हिन्दुओं ने हिन्दी।

माननीय खान-बहादुर सैयद अलीनबी और माननीय वज़ीरहसन ने भी प्रस्ताव का विरोध किया, पर अपने कथन