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साहित्यालाप


जान लें, और देवनागरी-लिपि भी सीख लें, जिससे हिन्दी के दस्तावेज़ और हिन्दी में लिखे हुए अर्ज़ीदावे तो वे पढ़ सकें। परन्तु इस इतनी ही कोशिश---और कोशिश भी ऐसी जो सर्वथा न्यायसङ्गत थी---करनेवालों पर अनुदार आक्षेपों की झड़ी लगा दी गई।

एक बात और भी विचार-योग्य है। गवर्नमेंट की वह आज्ञा तो रद हुई नहीं जिसकी रू से लोगों को अर्ज़ीदावे आदि देवनागरी लिपि में देने की इजाज़त है। अब प्रश्न यह है कि यदि सब-जज और मुन्सिफ़ यह लिपि न जानेगे तो इसमें लिखी गई अर्जियाँ पढ़ कैसे सकेंगे। या तो वह आज्ञा रद कर दी जाय या गवर्नमेंट के "मन्युअल" में तदनुकूल फेरफार किया जाय । इसी फेरफार के लिए ही यह प्रस्ताव उपस्थित किया गया था। इससे तो गवर्नमेंट की पूर्वोक्त आशा के अनुसार काम होने में विशेष सुभीता होता । चाहिए तो यह था कि गवर्नमेंट खुद ही यह फेरफार कर देती । पर यदि उसने स्वयं ही नहीं किया तो प्रार्थना की जाने पर तो कर देना था । वकालत-या एल-एल बी० की परीक्षा पास करके जो लोग मुन्सिफ़ होते हैं--और मुन्सिफ़ ही तरक्की पाकर प्राय: सब-जज हो जाते हैं---वे तो थोड़ी बहुत हिन्दी जानते ही हैं । उन्हें तो उसमें परीक्षा भी देनी पड़ती है। इस दशा में कुछ ही मुन्सिफ़ और सब-जज ऐसे होंगे जो हिन्दी भाषा और देवनागरी-लिपि से अनभिज्ञ होंगे। तथापि, खेद की बात है,गवर्नमेंट ने, इतने पर भी, इस प्रस्ताव का विरोध किया ।