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कौंसिल में हिन्दी


इस सम्बन्ध में गवर्नमेंट को उतना दोष नहीं दिया जा सकता जितना प्रतिवादकर्ता मुसलमान मेम्बरों को। गवर्नमेंट को अपनी नीति का भी पालन करना पड़ता है। किसी बात का विचार करते समय उसे उसको अनेक दृष्टियों से देखना पड़ता है। जो बात उसे आज इष्ट जान पड़ती है, कारण उपस्थित हो जाने पर, वही कल उसे अनिष्ट मालूम होती है। क्योंकि---

"वेश्याङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा"

अतएव, सम्भव है, गवर्नमेंट ने किसी विशेष नीति के पालन के लिए ऐसे सीधे-सादे और अधिकांश प्रजा के लिए इतने सुभीते के प्रस्ताव का विरोध करना उचित समझा। अस्तु।

इस प्रस्ताव के अन्य विरोधियों को दलीलों का--दलीलों का क्या अप्रासङ्गिक और असार कथन मात्र का---खण्डन वहीं कौंसिल ही में कर दिया गया था। इसके बाद हिन्दी,उर्दू और अँगरेज़ी के अनेक समाचारपत्रों में भी समुचित उत्तर दिये जा चुके हैं। अतएव हमें इस सम्बन्ध में कुछ विशेष निवेदन करने की आवश्यकता नहीं । हम संक्षेप ही में उनकी बातों पर विचार करेंगे।

अच्छा, तो नवाब साहब की बातों का उत्तर लीजिए। कौंसिल में जो "स्पीचे" हुई उनसे सिद्ध है कि मुसलमान महोदय हिन्दी का नाम सुनते ही चिढ़ते हैं । वे उर्दू को भारत के सारे मुसलमानों की तो भाषा बताते ही हैं ; उसे