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साहित्यालाप


मुसलमान ही नहीं। बहुत पुराने ज़माने से हिन्द उर्दू-फारसी सीखते आये हैं। उनकी लिखी हुई सैकड़ों पुस्तकें मौजूद हैं। अब तक भी कितने ही स्कूलों और कालेजों में उर्दू-फारसी पढ़ानेवाले अध्यापक तक हिन्दू हैं । पज्जाब और संयुक्तप्रान्त से उर्दू के कोड़ियों अख़बार ऐसे निकलते हैं जिन के लेखक और सम्पादक हिन्दू ही हैं । इस दशा में मुसलमानों ही को उर्दू की उन्नति का कारण समझना भ्रम के सिवा और कुछ नहीं हो सकता है।

यदि उर्दू भारत की राष्ट्र-भाषा ( Lingua Franca ) है तो उसके लिए इसी प्रान्त के मुसलमान क्यों इतना शोर मचाते हैं ? हिन्दुओं का तो ज़िक्र ही नहीं, और प्रान्तों के अधिकांश मुसलमान भी तो ऐसा नहीं करते। इस प्रान्त के अपढ़ गँवारों की भाषा उर्दू होना तो दूर की बात है, बङ्गाल, मदरास और बम्बई प्रान्त के शिक्षित मुसलमान भी उर्दू नहीं बोलते। वे सब अपने अपने प्रान्त की बोली या भाषा बोलते हैं। यही हाल इस प्रान्त के देहाती मुसलमानों का भी है। इसके लिए प्रमाण की ज़रूरत नहीं। चाहे जिस मौजे में चले जाइए,मुसलमानों की बोलीमें फ़ारसी-अरबी के क्लिष्ट शब्द कहीं ढूँढ़े न मिलेंगे। और जिस भाषा में इस तरह के शब्दों की भरमार नहीं,वह हिन्दी के सिवा और कुछ नहीं। यही इस प्रान्त की प्रधान भाषा है।

(ग) अंगरेजी-राज्य के पहले हिन्दी का नाम यदि "हिन्दी" न रहा हो तो इससे हिन्दीका अस्तित्व-लोप तो सिद्ध